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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २६ सू० १ कर्मवेदबन्धनिरूपणम् ५०९ बन्धकपदद्वयप्रक्षेपे चतुरोभङ्गान् आह - ' अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य छच्चिहबंब य चउमंगो १ ( ११ ) ' अथवा सप्तविधबन्धकाच अष्टविधवन्यकश्च षड्विधबन्धकश्च ८, अथवा सप्तविधबन्धकाञ्च अष्टविधबन्धकाश्च षड्विधबन्धकाश्च ९, अथवा सप्त विधबन्धका अष्टविधबन्धकाश्च षड् विधबन्धक १० अथवा सप्तविधबन्ध का प्रष्टविधबन्धकश्च षड्विधन्धकाचेति ११ चत्वारो भङ्गाः, अष्टविधबन्धकैकविधबन्धकपदप्रक्षेपे चतुरो भङ्गानाह - ' अहवा सत्तविह्नबंधगा य अद्वविहबंधए य एगविहबंधस्य चउभंगो २ (१५) अथवा सप्तविधबन्धकाच अष्टविधबन्धकञ्च एकविधवन्धक १२ इत्येवं रीत्या चतुर्भङ्गा:अथवा सप्तविधबन्धाश्च अष्टविधबन्धकाश्च एकविधबन्धकाश्च १३ अथवा सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधबन्धका एकविधबन्धकश्च १४ अथवा सप्तविधबन्धकाथ अष्टविधवन्धकच एकविबन्धका १५ इति अथ षड्विधबन्धकैकविधबन्धकपदप्रक्षेपे चतुरो भङ्गानाह - 'अहवा सत्तविहगाय छन्हिबंध य एगविहबंधर य चउभंगो ३ (१९) अथवा सप्तविधबन्ध - का पविवन्धक एकविधबन्धकश्च १६, अथवा सप्तविधवन्धकाच पविधबन्धकाच एकविधबन्धका १७ अथवा सप्तविधबन्धकाश्च षडूविधबन्धकाच एकविधवन्धकश्च १८ आठ के बन्धक और एक के बन्धक, इन दोनों पदों को सम्मिलित करने पर चार भंग होते हैं, यथा- (१२) बहुत सात के बन्धक, एक आठ का बन्धक और एक एक का बंधक | (१३) अथवा बहुत सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक, और बहुत एक के बन्धक । (१४) बहुत सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक और एक कोई एक का बन्धक । (१५) अथवा बहुत सात के बन्धक, कोई एक आठ का बन्धक, और बहुत एक के बन्धक । छह के बन्धक और एक के बन्धक, इन दो पदों का प्रक्षेप करने पर भी चार भंग होते हैं, यथा - (१६) अथवा बहुत सात के बन्धक, एक छह का बन्धक और एक कोई एक का बन्धक । (१७) अथवा बहुत सात के बन्धक, बहुत छह के बन्धक और बहुत एक का बन्धक । (१८) अथवा बहुत सात के बन्धक, बहुत આઠના અન્ધક અને એકના અન્યક આ બન્ને પદોને સમિલિત કરતાં ચાર ભગ थाय छे. प्रेम - (१२) । सातना अन्ध मे थाना अन्ध मने थे-नामन्ध. (૧૩) અથવા ઘણા સાતના અન્ધક ઘણા આઠના મધક અને ઘણા એકના અંધક. (૧૪) ઘણા સાતના અન્ય, ઘણા આર્ડના અધક અને કોઈ એક-એકના અધ (૧૫) અથવા ઘણુા સાતના અન્ધક કોઈ એક આડેના અન્ધક અને ઘણા એકના અંધક છના અન્ધક અને એઠના અન્ધક, આ પદોને મેળવતાં પણ ચાર ભંગ થાય છે. જેમ કે-(૧૬) અથવા ઘણા સાતના અન્ધક, એક છના અન્ધક અને કોઇ એક એકના બન્ધક, (૧૭) અથવા ઘણા સાતના અંધક ઘણા છના અન્ધક અને ઘણા એકના અન્યક, (૧૮) અથવા ઘણા સાતના અન્ધક, ઘણા છના અન્ધક અને એક કોઈ એકના અધક, શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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