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________________ प्रज्ञापनासूत्रे अथवा सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधबन्धकाश्च षडूविधवन्धकश्च एकविधबन्धकाश्च ७, अथवा सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधवन्धकाश्च पइविधवन्धकाश्च एकविधबन्धकश्च ८, अथवा सप्तविधबन्धकाश्च अष्टविधवन्धकाश्च षविधबन्धकाश्च एकविधबन्धकाश्च ९ एवम् एते नव भङ्गाः, ९, अवशेषाणाम् एकेन्द्रियमनुष्यवर्जागां त्रिकभङ्गो यावद् वैमानिकानाम्, एकेन्द्रियाणां सप्तविधबन्ध काश्च अष्टविधबन्धकाश्च, मनुष्याणां पृच्छा. गौतम ! सर्वेऽपि तावद् भवेयुः सप्तबहुत सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक, एक छह का बन्धक और एक कोई एकप्रकृति का बन्धक होता है (अहया सत्तविहबंधगा य, अट्टविहबंधगा य, छव्यिहबंधगे य, एर्गावहबंधगा य) अथवा बहुत सात के बन्धक बहुत आठ के बन्धक, एक छह का बन्धक और बहुत एक प्रकृति के बन्धक (अहवा सत्तविहबंधगा य, अट्टविहबंधगा य, छच्चिहबंधगा य, एगविहबंधए य) अथवा बहुत सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक, बहुत छह के बन्धक और कोई एक एक प्रकृति का बन्धक होता है (अहया सत्तचिहबंधगा य, अट्टविहवंधगा य, छव्धिहबंधगा य, एगविहबंधगा य) अथवा बहुत सात के बन्धक, बहुत आठ के बन्धक, बहुत छह के बन्धक और बहुत एक प्रकृति के बन्धक (एवं एते नव भंगा) इस प्रकार ये नो भंग होते हैं । (अयसेसाणं) शेष (एगिदिय-मणूसयजाणं) एकेन्द्रियों और मनुष्यों को छोड कर (तियभंगो) तीन भंग कहना (जाप वेमाणियाण) वैमानिकों तक (एगिदियाणं सत्तचिहबंधगा य अविहबंधगा य) एकेन्द्रियों में बहुत-से सात के बन्धक और बहुत से आठ के बन्धक होते हैं। (मणूसाणं पुच्छा ?) मनुष्यों के विषय में प्रश्न ? (गोयमा ! सच्चे वि ताव (अहवा सत्तविहबंधगा य, अट्टविहबंधगा य, छविहबंधए य, एगविहबंधए य,) અથવા ઘણા સાતને બંધક, ઘણા આઠના બધક, એક છનો બંધક કેઈ એક એક પ્રકૃતિને બંધક હોય છે. (अहवा सत्तविहबंधगा य, अविहबंधगा य, छव्विबधगा य, एगविहबंधए य) २५041 ઘણું સાતના બંધક ઘણા આઠના બન્ધક, ઘણા છના બંધક અને અને કેઈ એક એકના બંધક હોય છે. (अहवा सत्तविहबंधगा य, अट्ठविहब धगा य, छव्विहबंधगा य, एगविहबंधगा य,) અથવા ઘણા સાતના બંધક, ઘણા આઠના બંધક, ઘણા છના બંધક અને ઘણા એક प्रकृतिना मन्य है।य छ (एवं एते नव भंगा) 0 रे न मने छ. (अवसेसाण) शेष (एगिदिय मणूसयज्जाणं) मेन्द्रियो भने मनुष्यो सिवाय (तियभंगो) १ मा ४९ छ (जाय वेमाणियाण) वैमानि सुधी (एगिदियाण सत्तविहब धगा य, अविहब धगा य,) એકેન્દ્રિયોમાં ઘણા સાતના બન્ધક અને ઘણું આઠના બન્ધક હોય છે, શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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