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प्रमेयबोधिनी टीका पद २२ स. ८ प्राणातिपातचिरमणनिरूपणम्
१२७ अथवा सप्तविधयन्धकाश्च एकविधवन्धकार अष्टविधबन्धकाश्च षड्विधबन्धकाश्च अ. बन्धकाश्च ८, एव पेते अष्टौ भङ्गाः सोऽपिमिलिता सप्तविंशति भङ्गा भवन्ति,एवं मनुष्याणामपि एते चैव सप्तविंशति भङ्गामणितव्याः, एवं मृषावादविरतस्य यावत् माया मृषाविरतस्य जीवस्य च मनुष्यस्य च मिथ्या दर्शन शल्यविरतः खलुभदन्त ! जीवः कति कर्म प्रकृति बैध्नाति ? गौतम सप्तविधवन्धको वा अष्टविधबन्धको वा, बन्धक, एक छह का बन्धक, अनेक अबंधक ॥६॥
(अहवा सत्तविहबंधगा य, एगविहबंधगाय, अट्टविहबंधगा य, छबिहबंधगा य अबधए य) अथवा अनेक सात के बन्धक अनेक एक के बंधक अनेक आठ के वधक अनेक छह के बंधक एक अबधक ॥७॥
(अहवा सत्तविहवं धगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबधगा य छविहबंधगा य' अबधगाय) अथवा अनेक सात के बन्धक, अनेक एक के बन्धक, अनेक आठ के बन्धक, अनेक छह के बन्धक, अनेक अबंधक ॥८॥
(एवं एते अभंगा) इस प्रकार ये आठ भंग हैं ( सम्वेवि मिलिया सत्तावीस भंगा भवंति) सभी मिलकर सत्ताईस भंग होते हैं । __ (एवं मणसाण वि) इसी प्रकार मनुष्यों के भी (एते चेव सत्तावीसं भंगा माणि पव्या ) ये ही सत्ताईस भंग कहने चाहिए ( एवं मुसावायविरयस्स जाव मायामोस विरयस्स) इसी प्रकार मृपावादविरत यावत् मायामृषा वादसे विरत (जीवस्स ) जीय के (मणूसस्स य) और मनुष्य के भी कहने चाहिये ।
(मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते! जीवे कति कम्मपगडीओ बंधति) हे भगवन् मिथ्यादर्शनशल्य से विरत जीव कितनी कर्मप्रकृतियां बांधता है ? ( गोयमा ! सत्त
(अहवा सत्तविहबधगा य, एगविहबंधगा य, अठविहबधगा य, छविहबधगा य, अबधए य;) અથવા અનેક સાતના બન્ધક, અનેક એકના બધક, અનેક આઠના બધેક અનેક છના બન્ધક, અને એક અબધેકા ||રા
( अहवा सत्तविहबंधगा य, एगविहबधगा य,अहविहबंधगा य,छविहब धगा य,अबंधगा य) अथया અનેક સાતને બન્ધક, અનેક એકના બધક, અનેક આઠના બન્ધક, અનેક છના બંધક અનેક અબન્ધક છે.
(एवं एते अह भंगा) मा २ मा मा छ (सव्वे वि मिलिया सत्तावीस भगाभवति) सधा भजीने सत्यावीस 1 थाय छ
(एवं मणूसाण वि) से मनुष्योना पास (एते चेव सत्तावीस भंगा भाणियन्वा) मा सत्यापीस मग डे। ये (एवं मुसावार्यावरयस्स जाव मायामोसबिरयस्स) मे रे भूषापाह विरत, यावत् मायामृषाविरत,(जीवस्स) 94ना(मणूसस्स य) मने मनुष्यना समयमा यु.
(मिच्छादसणसल्लविरएणं भते ! जीवे कति कम्मपगडीओ बधंति ) सा! भियाइश શલ્યથી વિરત છવ કેટલી કમ પ્રકૃતિ બાંધે છે?
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫