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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ३६ सू० १७ सयोगावस्थायां सिद्धथाद्यभावनिरूपणम् ११४५ यित्वा औदारिकतैजसकामपानि सर्वैः विप्रहानैः विप्रजहाति, विप्रहाय ऋजुश्रेणी प्रतिपत्रः, अस्पृश्यमानपत्या एकसमयेन अविग्रहेण अर्ध्व गत्वा साकारोपयुक्तः सिध्यति बुध्यते मुच्यते सर्वदुःखानामन्तं करोति, तत्र सिद्धो भवति, ते खलु नत्र सिद्धा भवन्ति, अशरीरा जीवधना दर्शनज्ञानोपयुका निष्ठितार्था नीरजसः निरेजना वितिमिरा विशुद्धाः शाश्वतम् अनागताद्धं कालं तिष्ठान्न, तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-ते खलु तत्र सिद्धा भवन्ति अशरीरा (इच्चेते चत्तारि कम्मंसे) ये चार कर्म प्रकार (जुगवं खवेइ) एक साथ क्षय करते हैं (जुगवं ग्ववेत्ता) एक साथ क्षय कर के (ओरालय तेयाकम्मगाई) औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर को (सचाहिं विपजहणाहिं) पूरी तरह त्याग द्वारा (विप्पजहह) त्यागते हैं (विप्प हत्तो) त्याग कर के (उज्जुसेढी पडियण्णो) ऋजु श्रेणी को प्राप्त होकर (अफुममाणगईए) अस्पृशत गति से (एगसमएणं) एक समय में (अविग्गहेणं) चिना विग्रह-मोड के (उडूं गंता) ऊपर जाकर (सागारोव उत्त) साकार उपयोग-ज्ञानोपयोग में उपयुक्त होकर (सिज्झइ) सिद्ध होते हैं (बुज्झइ) बुद्ध होते हैं (मुच्चइ) मुक्त होते हैं (सव्वदुक्खाणं अंतं करें इ) सब दुःखों का अन्त करते हैं (तत्थ सिद्धो भवइ) वहां सिद्ध हो जाते हैं। (ते णं तत्त्थ सिद्धा भवंति) वे सिद्ध यहां ऐसे होते हैं ? (असरीरा) शरीर से रहित (जीवघणा) सघन आत्मप्रदेशोंवाले (दसणणाणोव उत्ता) दर्शन और ज्ञान में उपयुक्त (निट्ठियहा) कृतार्थ (नोरया) नीरज (निरयणा) निष्कम्प (वितिमिरा) कर्म था अज्ञान के तिमिर से रहित (विसुद्धा) पूर्ण शुद्ध (सासयमणागयद्धं कालं चिटुंति) शाश्वत भविष्य काल में रहते हैं। ___ (से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ) किस हेतु से हे भगवन् ! ऐसा कहा है कि भने मात्र (इच्चेते चत्तारि कम्मसे) ॥ या२ ४° ४१२ना मशीन (जुगवं खवेइ) मेडी साथ क्षय ४२ छ (जुगव खवेत्ता) में ही साथै क्षय हरीन (ओरालिय तेंया कम्मगाई) मोहा२ि४, तेस मन मा शरीरने (सवरहिं विप्प जहणाहि) पूरी शते त्या द्वारा (विप्पजहइ) त्यागे छ (विप्पज हित्ता) त्या प्रशने (उज्जुसेढी पडिवण्णो) ऋ श्रेणीने प्रारत पधने (अफुसमाणगइए) २५Yशत अतिथी (एग समएण) ४ समयमा (अविग्गहेण) पिना(वयह भान (उडूढंगता) ५२ धने (सागारोवउत्ते) ॥५२ ७५21-ज्ञानोपयोगी उपयुक्त ने (सिज्झइ) सिं थाय छे (बुज्झइ) सुद्ध थाय छे (मुच्चइ) भुत थाय छ (सव्वदुक्खाण अंत करेइ) सौ मानो त सा छे (तत्थ सिद्धे भवइ) त्या सिद्ध થઈ જાય છે. (तेण तत्थ सिद्धा भवंति) ते सिद्ध त्यां मापा ५५ हाय छ (असरीरा) शरीरथी रहित (जीवघणा) सधन माम प्रदेशोषाणा (दसणणाणोव उत्ता) ४२°न ज्ञानमा उपयुक्त (निद्रियट्टा) कृतार्थ (नीरया) ना२४ (निरयणा) 10४५ (वितिमिरा) भ में जानना तिमिया २हित (विसुद्धा) पूर्ण शुद्ध (सासयमणागयद्ध काल चिटुंति) शायत अविष्य શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫
SR No.006350
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1980
Total Pages1173
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size76 MB
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