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प्रशापनासूत्रे टीका-अथ समुद्घातगतो जीयो यावत् क्षेत्रं समुद्घातयशात् तै स्तै : पुद्गलैाप्नोति तत्प्रयितुमाह--'जीवे णं भंते ! वेयणासमुग्धाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छु. भइ तेहि णं भंते ! पगलेहि केवइए खेत्ते अफुण्णे केवइए खेत्ते फुडे ?' जीवः खलु वेदना समुद्घा तेन समवहतः सन्-वेदनासमुद्घाते वर्तमानस्तेन समबहतो भवति, तेन समवहत्य च यान् पुद्गलान् वेदनायोग्यान स्वशरीरान्तर्गतान् निक्षिपति--आत्मप्रदेशाद् वहिनिःसारयति तैः खलु पुद्गलैः आत्मप्रदेशनिष्कासितः कियत् क्षेत्रम् आपूर्णम् भवति, आपूरणश्चान्तराले कतिपयाकाशप्रदेशासंस्पर्शनेऽपि व्यवह्रियते अत आह-कियत क्षेत्रं स्पृष्टम्-प्रतिप्रदेशापूरणेन व्याप्तं भवति ? भगवानाह-गोयमा !' हे गौतम ! 'सरीरप्पमाण मेत्ते विक्खंभवाहल्लेणं (णवरं विगहो ति समइओ) विशेष-विग्रह तीन समय का (जहा नेरक्यस्स) जैसा नारक का (सेसं तं चेव) शेष वही (जहा असुरकुमारे एवं जाय वेमाणिए) जैसा असुरकुमार वैसा ही वैधानिक तक कहना (गवरं एगिदिए जहा जीवे) विशेष एकेन्द्रिय जीव के समान (निरक्सेस) सम्पूर्ण ॥ सू० १२ ॥
टीकार्थ-समुदघात को प्राप्त जीव समुदघात वश होकर जितने क्षेत्र को उन-उन पुद्गलों से व्याप्त करता है, उसकी प्ररूपणा की जाती है
गौतमस्वामी-हे भगवन् ! जीव वेदनासमुदघात से समयहत होता है और समवहत होकर जिन पुद्गलों को अपने शरीर से बाहर निकालता है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण होता है ? कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? यहाँ आपूर्ण और व्याप्त, इन दो शब्दों का प्रयोग किया गया है । आपूर्ण कहने से बीच बीच के कुछ आकाश प्रदेशों का स्पर्श न करना भी ध्वनित हो सकता है, अतः व्याप्त भी कहा है, जिससे यह आशय प्रकट होता है कि वीच का कोई भी आकाशप्रदेश अस्पृष्ट न रहा हो। निसमइ भो) विशेष-
वित्र समयन। (जहा नेरदयस्स) को ना२४ा (सेसं त'चेव) शेष न (जहा असुरकुमारे एवं जाव वेमाणिर) या मसु२४मा२ ते ४ वैमानि: सुधी (नपर एगिदिए जहा जीवे) विशेष केन्द्रिय ७५ना समान (निरवसेस) सपथ ॥सू० १२॥
ટીકા – મુદ્દઘાતને પ્રાપ્ત જીવ સમુઘાત વશ થઈને જેટલા ક્ષેત્રને તે-તે પુદ્ગલોથી વ્યાપ્ત કરે છે, તેની પ્રરૂપણ કરાય છે
શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન ! જીવ વેદનાસમુદ્રઘાતથી સમવહત થાય છે અને સમવહત થઈને જે પુદ્ગલેને પિતાના શરીરમાંથી બહાર કાઢે છે, તે પુદ્ગલોથી કેટલા ક્ષેત્ર પરિપૂર્ણ થાય છે? કેટલા ક્ષેત્ર પૃષ્ટ અર્થાત્ વ્યાપ્ત થાય છે? અહીં આપૂર્ણ અને વ્યાપ્ત, એ બે શબ્દોને પ્રવેગ કરેલો છે. આપણું કહેવાથી વચલા વચલા કેટલાક આકાશ પ્રદેશનું પ્રદર્શન કરવું વનિત થઈ શકે છે, તેથી વ્યાપ્ત પણ કહ્યું છે, જેથી આ આશય પ્રકટ થાય છે કે વચ્ચે કઈ પણ આકાશ પ્રદેશ અસ્પષ્ટ ન રહેલ હોય.
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૫