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________________ प्रमैयबोधिनी टीका पद २१ सू० ५ वैक्रियशरीरसंस्थाननिरूपणम् ६९५ रम-औधिका वानव्यन्तराः प्रक्ष्यन्ते, एवं ज्योतिष्काणामपि औधिकानाम्, एवं सौधर्म यावद् अच्युतदेवशरीरम्, ग्रैवेयककल्पातीतवैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरं खलु भदन्त ! कि संस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! ग्रैवेयकदेवानामेकं भवधारणीयशरीरम्, तत् खलु समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तम्, एवम् अनुत्तोपपातिकानामपि ।। सू० ५ ॥ टीका-पूर्व वैक्रियशरीराणां भेदाः प्ररूपिताः, सम्प्रति तेषामेव संस्थानानि प्ररूपयितुमाह-वेउब्धियसरीरे णं भंते ! किं संठिए पणते ?' हे भदन्त ! वैक्रियशरीरं खलु किं संस्थानसंस्थितम्-किमाकारव्यवस्थितं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'णाणा कहा है (एवं जाय थणियकुमार देव पंचिंदिय वेउब्वियसरीरे) इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमार देव पंचेन्द्रिय वैक्रियशरीर (एवं वाणमंतराण वि) इसी प्रकार पानव्यन्तरों का भी (णवरं) विशेष (ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जंति) समुच्चय वानव्यन्तरों के विषय में प्रश्न होता है (एवं जोइसियाण वि ओहियाणं) इसी प्रकार समुच्चय ज्योतिष्कों का भी (एवं सोहम्मे जाय अच्चुय देवसरीरे) इसी प्रकार सौधर्म यावत् अच्युत देवों को शरीर भी समझ लेवें (गेवेज्जगकप्पातीत वेमाणिय देव पंचिंदिय वेउव्यियसरीरे णं भंते ! किं संठाणसंठिए पण्णत्ते ?) हे भगवन् ! ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिकदेव पंचेन्द्रियोंना वैक्रियशरीर किस आकार का कहा है ? (गोयमा ! गेवेज्जग देवाणं एगे भवधारणिज्जे सरीरे) हे गौतम ! प्रैवेयक देवों का एक भवधारणीय शरीर होता है (से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णन्ते) वह समचतुरस्त्र संस्थान याला होता है (एवं अणुत्तरोवाइयाण वि) इसी प्रकार अनुत्तरोपपातिकों का भी होता है। टीकार्थ-इससे पूर्व वैक्रिय शरीर के भेदो का निरूपण किया गया था, अब से उत्तरवेउव्विए सेणं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते) तयामारे उत्तरवैठिय छ त भने संस्थानमा ४i छ (एवं जाव थणियकुमारदेवपंचिंदियवेउब्वियसरीरे) मे प्रार થાવત્ સ્વનિતકુમાર દેવ પંચેન્દ્રિય વૈકિયશરીર પણ સમજી લેવા. __ (एवं वाणमंतराण वि) मे०४ ५४ारे पान०य-तना ५९ (णवरं) विशेष (आहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जति) समुव्यय वानव्य-तरोन विषयमा प्रश्न याय छ (एवं जोइसियाण वि ओहियाणं) मे ५२ सभुस्यय न्योति न प (एवं सोहम्मे जाव अच्चुय देव सरीरे) मे ३ सौधर्म यावत् अयुत वोना शरी२ (गेवेज्जग कप्पातीत वेमाणिय देवाणं पंचिंदियवेउव्विसरीर णं भंते ! किं संठाण संठिए पग्णत्ते), सावन ! अवेयर ४८यातीत वैमानि हेर येन्द्रियोना वैठियशरीर है। माना घi छ ? (गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिज्जे सरीरे) गौतम ! अये५४ ॥ ॐ सधारणाय शरीर डाय छ (से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते) ते सभयतु२ख संस्थानपणा हाय छ (एवं अणुत्तरोववाइयाण वि) मे४ प्रारे अनुत्तरी ५५ातिना ५ समपा. ટીકાથ–આનાથી પૂર્વે વૈક્રિયશરીરના ભેદનું નિરૂપણ કરેલું હતુંહવે તેમના श्री. प्रशान। सूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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