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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद २० सू० ६ द्वीन्द्रियोत्पादनिरूपणम् उत्पादयेत् ? हन्त, गौतम ! यावद् उत्पादयेत्, यः खलु भदन्त ! आभिनिबोधिकज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानानि उत्पादयेत् स खलु शक्नुयात् शीलं वा यावत् प्रतिपत्तुम् ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, एवम् असुरकुमारेष्वपि यावत् स्तनितकुमारेषु एकेन्द्रियविकलेन्द्रियेषु यथा पृथिवीकायिकाः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकेषु मनुष्येषु च यथा नैरयिकः, वानव्यन्तर ज्योतिष्क वैमानिकेषु यथा नैरयिकेषु उपपद्यते पृच्छा, भणिता एवं मनुष्येऽपि, वानव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिकेषु यथा अमरकुमाराः ॥ सू० ६॥ बोहियणाण सुयणाण ओहिनाणाई उप्पाडेजा ?) वह आभिनिबोधिज्ञान, श्रुत. ज्ञान, अवधिज्ञान को प्राप्त करता है ? (हंता गोयमा ! जाव उप्पाडेजा) हां गौतम ! यावत् प्राप्त करता है (जे णं भंते ! आभिणिबोहिय नाणसुयनाणोहि नाणाई उप्पाडेजा) हे भगवन् ! जो आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान को प्राप्त करता है (से णं संचाएजा सीलं वा पडिवजित्तए ?) वह क्या शील को यावतू अंगीकार करने में समर्थ होता है ? (गोयमा ! णो इणढे समठे) गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है (एवं असुरकुमारेसु वि) इसी प्रकार असुरकुमारों में भी (जाव थणियकुमारेसु) धावत् स्तनितकुमारों में (एगिदिय विगलिंदिएसु जहा पुढविकाइया) एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियों में जैसे पृथ्वी कायिक (पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु य जहा नेरइए) पंचेन्द्रिय तियचो में तथा मनुष्यों में जैसे नैरयिक (वाणमंतर जोइसियवेमाणिएसु) वानव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिकों में (जहा नेरइएसु) जैसे नारकों में उववजह) उपजता है (पुच्छा) पृच्छा (भाणिया) कही (एवं मणुस्से वि) इसी प्रकार मनुष्य में तभामिनिमाधिशान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञानने प्रात ४२ १ (हंता गोयमा ! जाव उप्पाडेज्जा) डा, गौम ! यावत् प्रात ४२ छ (जे णं भंते ! आभिणिबोहियनाण सुयणाण ओहिनाणाइ उप्पाडेज्जा) भगवन् ! मिनिमाधिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञानने प्राप्त रे छ (से णं संचाएज्जा सीलं वा पडिवज्जित्तए ?) ते शु शासने यावत् माजी२ ४२वामी समर्थ थाय छ ? (गोयमा ! णो इणद्वे समटे) 3 गौतम ! 240 मथ सय नथी (एवं असुरकुमारेसु वि) मे रे मसु२४भामा ५९५ (जाव थणियकुमारेसु) यावत् स्तनितमामा. (एगिदिय विंगलिदिएसु जहा पुढविकाइया) मेन्द्रियामा २१ पृथ्वीयिs. (पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु मणुस्सेसु य जहा नेरइए) ५येन्द्रिय तिय योभा तथा મનુષ્યમાં જેમ નૈરથિક, વિષે કહેલ છે તેજ પ્રમાણે સમજવું. (वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु) पान०य-तर, ज्योति तथा वैभानिमा (जहा नेरइएसु) रेभ ना२ मा (उववज्जइ) उप छ (पुच्छा) २छ। (भणिया) ४ी (एवं मणुस्से वि) ये रे मनुष्यमा (वाणमंतर जोइसिय वेमाणिएसु जहा असुरकुमारा) पानव्यन्त२, श्री. प्रशान। सूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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