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प्रमेयबोधिनी टीका पद १८ सू० १४ भाषाद्वारनिरूपणम्
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अभाषकः खलु पृच्छा, गौतम ! अभाषक स्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - अनादिको वा अपर्यवसितः, अनादिको वा सपर्यवसितः, सादिको वा सपर्यवसितः, तत्र खलु योऽसौं सादिको वा सपर्यवसितः स जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन वनस्पतिकाल:, द्वारम् १५, परीतकः खलु पृच्छा, गौतम ! परीतको द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - कायपरीतच संसारपरीतश्च, कायपरीतः खलु पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन असंख्येय पृथिवी कालः, असंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, संसारपरीतः खलु पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, एवं समयं उक्कोसेणं अंतोमुत्तं) हे गौतम! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तहूर्त्त तक भाषक जीव भाषकपने में रहता है (अभासए णं पुच्छा ?) अभाषक के संबन्ध में - पृच्छा ? (गोयमा ! अभासए तिविहे पण्णत्ते) हे गौतम! अभाषक तीन प्रकार के कहे हैं (तं जहा अणारीए वा अपज्जवसिए अणादीए या साइए सपज्जबसिए, साइए सपज्जयसिए) वे इस प्रकार - अनादि अपर्यवसित, अनादि सपर्यवसित और सादि सपर्यवसित
(तत्थ णं जे से साइए सपज्जवसिए) उन में से जो सादि सपर्यवसित है और (से जहणेणं अंतोमुहुत्तं) वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक, उक्कोसेणं वणक कालो) उत्कृष्ट वनस्पति काल तक आभाषक रहता है (द्वार १५)
(परित्तए णं पुच्छा ?) परितविषयक - पृच्छा ? (गोयमा ! परिते दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा कायपरिते य, संसारपरिते य) हे गौतम ! परित्त दो प्रकार के कहे हैं, यथा - कायपरित और संसार परित (कायपरिते णं पुच्छा ?) कायपरीत विषयकपृच्छा ? (गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं) हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक (उक्को सेणं पुढचिकालो) उत्कृष्ट पृथ्वी काल तक (असंखेज्जाओ उस्सप्पिणि ओपिओ) असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी (संसारपरिते णं पुच्छा ?) अंतोमुहुतं) हे गौतम ! धन्य मे समय, उत्सृष्ट अन्तर्मुहूर्त सुधी भाषम्लप लाषपणामां रहे छे (अभासणं पुच्छा ?) अभाष संबंधी पृ२छा ? (गोयमा ! अभासए दुविहे पण्णत्ते) हे गौतम ! भाषड में अहारना उद्या हे (तं जहा - अणादीए वा अपज्जवसिए अणादीए वा सपज्जवलिए साइए सपज्जबसिए) तेथे या प्रारे साहि अपर्यवसित भने साहि सपर्यवसित.
(तत्थणं जे से साइए सपज्जबसिए) तेसमांथी ने साहि सपर्ययसित छे (से जहणणेणं अंतोमुहुत्तं) ते धन्य अन्तर्मुहूर्त सुधी, ( उक्कोसेणं वणफइ कालो) उष्ट वनस्पतिक्षण સુધી અભાષક રહે છે. (દ્વાર ૧૫)
(परित्तणं पुच्छा ?) परीतविषे- पृ२छा ? (गोयमा ! परित्ते दुविहे पण्णत्ते, तं जहा कायपरि तेय, संसारपरित्तेय) हे गौतम! पति मे प्रहारना छे, नेम! अयपरित्ताने संसारपरित्त ( काय परिणं पुच्छा ? ) डायपरित संबंधी पृथ्छा ? (गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं) हे गौतम ! धन्य अन्तर्मुहूर्त सुधी (उक्कोसेणं पुढविकालो) उत्कृष्टथी पृथ्वी अब सुधी (असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ) असण्यात उत्सर्पिर्ण अवसर्पिशु (संसारपरित्तेणं पुच्छा ?)
प्र० ५८
श्री प्रज्ञापना सूत्र : ४