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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १८ २०१२ संयतद्वारनिरूपणम् ४४१ वा सपर्यवसितः तत्र खलु योऽसौ साद सपर्यवसितः स जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन अनन्तं कालम्, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसपिण्यः कालतः, क्षेत्रतः अपार्द्ध पुद्गलपरिवर्त देशोनम्, संयतासंयतः खलु पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन देशोनां पूर्वकोटिम, नो संयत नो असंयत नो संयतासंयतः खलु पृच्छा, गौतम ! सादिकोऽपर्यवसितः, द्वारम् १२, साकारोपयोगोपयुक्तः खलु भदन्त ! पृच्छा, गौतम ! जघन्येन उत्कृष्टेन अन्तमुहूर्तम्, अनाकारोपयोगोऽपि एवञ्चैव, द्वारम् १३ ॥सू० १२॥ हे गौतम ! असंयत तीन प्रकार के कहे हैं (तं जहा) बे इस प्रकार (अणादीए वा अपज्जवसिए) अनादि अनन्त (अणादीए वा सपज्जवसिए) अनादि सान्त (सादीए वा सपञ्जवसिए) सादि और सान्त (तत्थ णं) उनमें (जे से) जो (सादीए सपजसिए) सादि सान्त है (से जहण्णे णं अंतोमुहत्तं) वह जघन्य अन्तमुहर्त तक (उकोसेणं अणंतं कालं) उत्कृष्ट अनन्त काल तक (अणंताओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ) अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी (कालओ) काल से (खेत्तओ अवड्डू पोग्गलपरियर्ट देसूर्ण) क्षेत्र से देशोन अपार्ध पुद्गलपरिवर्तन (संजयासंजए ण पुच्छा ?) संयतासंयत विषयक पृच्छा ? (गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्त) हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्ततक (उकोसेणं देसूर्ण पुवकोडि) उत्कृष्ट देशोन करोडपूर्व तक। (नो संजए नो असंजए मो संजयासंजए णं पुच्छा ?) नो संयत, नो असंयत और नो संयतासंयत संबंधी प्रश्न ? (गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए) गौतम ! सादि अनन्त (द्वार १२) (सागारोवओगोवउत्ते ण भंते ! पुच्छा ? ) हे भगवन् ! साकारोपयोग से ५४(अणादीए वा अपज्जवसिए) मनाहियानन्त (अणादीए वा सपज्जवसिए) म सान्त (सादीए वा सपज्जवसिए) सामने सान्त (तत्थगं) ते मसयतमा (जे से) (सादीए सपज्जवसिए) सामने सन्त छ (से जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं) ते धन्य मन्तभुत सुधा (उकोसेणं अणंतं कालं) Gree मन त सुधा (अणंताओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ) अनन्त Gafel-Aqसपिए (कालओ) कथा (खेत्तओ अवडूढं पोग्गलपरियट्टं देसूणं) क्षेत्रयी शान અપાઈ પુદ્ગલ પરિવર્તન. (संजयासंजएणं पुच्छा ?) स यतासयत समधी-२छ। १ (गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं) गौतम! धन्य मन्तकृत सुधा (उक्कोसेणं देसूगं पुव्वकोडिं) Gष्ट शान ४२।सुधी. (नोसंजए नो असंजए नो संजयासंजए णं पुच्छा ?) नसियत, मसयत, न यताસંતય સમ્બન્ધી પ્રશ્ન. (गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए) ३ गौतम ! साहिमन-त. हा १२ (सागारोवओगोवउत्ते णं भंते ! पुच्छा ?) मापन ! सारे।५।।थी ७५युतविष छ? श्री. प्रशान। सूत्र:४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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