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________________ प्रबोधिनी टीका पद १८ सू० ३ कायद्वारनिरूपणम् ३५७ तए पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जाई वास सहस्लाई, एवं आउ वि, तेउकाइए पज्जतए पुच्छा, गोयमा ! जहवणेणं अंतोमुहुत्तं उक्को से गं संखेज्जाई राइंदियाई, वाउकाइय पजत्तएणं पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जाई, बाससहस्साईं, वणस्सइकाइय पज्जत्तए पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण संखे जाई वाससहस्साई, तसकाइय पजत्तए पुच्छा, गोयमा ! जहसंखेज्जाई oo अंतोमुहतं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं दारं ॥ सू० ३ ॥ छाया - सकायिकः खलु भदन्त ! सकायिक इति कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! सकायिको द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - अनादिको वा अपर्यवसितः, अनादिको वा सपर्यवसितः पृथिवीकायिकः खलु पृच्छा ? गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कृष्टेन असंख्येयं कालम्, असंख्येया उत्सर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतः असंख्येया लोकाः, एत्रम् अप्तेजोवायुकाथिका अपि, काय द्वार शब्दार्थ - ( सकाइए णं भंते ! सकाइए ति कालओ केवच्चिरं होइ ?) हे भगवन् ! सकायिक जीव सकाधिक पनेमें कितने काल तक रहता है ? ( गोयमा ! सकाइए दुविहे पण ते) हे गौतम! सकायिक दो प्रकार के कहे हैं (तं जहाअणाइए वा अपज्जवसिए अणाइए वा सपज्जवसिए) वे इस प्रकार -अनादि अनन्त और अनादि सान्त ( पुढविकाइए णं पुच्छा ?) पृथ्वीकायिक संबंधी प्रश्न ? (गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं जघन्य अन्तर्मुहूर्त (असंखेजाओ उस्सप्पिणी ओसपिणीओ) असंख्यात उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी (कालओ) काल से (खेत्तओ असंखेज्जा लोगा) क्षेत्र से असंख्यात लोक ( एवं आउतेउवाउकाइया वि) इसी प्रकार अष्कायिक, ફાયદ્વાર शब्दार्थ - ( सकाइएणं भंते ! सकाइएत्ति कालओ केवच्चिरं होई ?) डे लगवन् ! सायि व सहायियामां डेटला आजपर्यन्त मन्या न रहे छे ? (गोयमा ! सकाइए दुविहे पण्णत्ते) हे गौतम! सायि मे अारना || छे. (तं जहा - अणाइए वा अपज्जवसिए अणाइए वा सपज्जवसिए) ते या प्रमाणे हे अनादि अनंत अने अनाहि सान्त. ( पुढविकाइएणं पुच्छा ?) पृथ्वी अयि संबंधी प्रश्न छे. (गोयमा ! जहणणेणं अंतो मुहुत्त ) धन्यथी अन्तर्मुहूर्त (उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं) उत्सृष्टथी असंख्याता (असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी आसपिणीओ) असण्यात उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी (कालओ) अणथी (खेत्तओ) असं खेज्जा लोगा) क्षेत्रथी असभ्याता ( एवं आउउकाइयावि) मेन प्रभाशे अयुमायिक श्री प्रज्ञापना सूत्र : ४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
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