SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रबोधिनी टीका पद १८ स्० २ जीवानां सेन्द्रियत्वनिरूपणम् ३५५ संख्येयानामेव मासानामुपलभ्यमानत्वात्, गौतमः पृच्छति - 'पंचिंदिय पज्जत्तएर्ण भंते ! पंचिदियपज्जत्तरत्ति कालभो केवच्चिरं होइ ?' हे मदन्त ! पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकः खलु जीवः पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकत्वमिति पर्यापेण कालतः - कालापेक्षया क्रियच्चिरं भवति ? अवतिष्ठते ? भगवानाह - 'गोयमा !" हे गौतम ! 'जहणणेणं अंतीमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयमुहुत्तं' जघन्येन अन्तर्मुहुर्तम् उत्कृष्टेन सागरोपमशतपृथक्त्वं यावत् पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकः पञ्चेन्द्रियपर्याप्तत्व पर्यायेण अवतिष्टते, गौतमः पृच्छति - 'सईदियअपज्जत्तणं भंते । पुच्छा' सेन्द्रि पर्याप्तः खलु भदन्त ! सेन्द्रियापर्यातकत्वपर्यायेण कालापेक्षया कियन्तं कालं यावद् अवतिष्ठते ? इति पृच्छा, भगवानाह - 'गोयमा !' हे गौतम ! 'जहणेण वि उक्को सेणवि अंतोमुहुतं जघन्येनापि उत्कृष्टेनापि अन्तर्मुहूर्त यावत सेन्द्रियपर्याप्तकः सेन्द्रियपर्याप्तकत्व पर्यायेण अवतिष्ठते, तथा चात्र अपर्याप्ताः लब्ध्यपेक्षया करणापेक्षया चावसेयाः, उभयथापि तत्पर्यायस्य जघन्येन उत्कृष्टेन वाऽन्तर्मुहूर्त प्रमाणत्वात्, 'एवं जाव पंचिदिय अपज्जन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति छह महीने की होती है, अतएव अगर वह लगातार कतिपय चौइन्द्रिय पर्याप्त के भव करे तो भी संख्यात मास ही होते हैं । गौतमस्वामी - हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव कितने काल तक लगा तार पंचेन्द्रिय पर्याप्त पर्याय से युक्त रहता है ? भगवान - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक, उत्कृष्ट पृथक्त्व शतसागरोपम तक पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव लगातार पंचेन्द्रिय पर्याप्त पर्याय से युक्त रहता है। गौतमस्वामी - हे भगवान् ! स-इन्द्रिय अपर्याप्त जीव कितने काल तक स इन्द्रिय अपर्याप्त पर्याय में रहता है ? भगवान् - हे गौतम! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक स- इन्द्रिय अपर्याप्त जाव स-इन्द्रिय अपर्याप्त पर्याय में रहता है । यहां लब्धि की अपेक्षा और करण की अपेक्षा से अपर्याप्त समझना चाहिए। दोनों तरह से अपर्याप्त अवस्था अन्तर्मुहूर्त तक ही रहती है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय अपर्याप्त શ્રી ગૌતમસ્વામી-હે ભગવન્! પંચેન્દ્રિય પર્યાપ્ત જીવ કેટલા કાળ સુધી નિરન્તર પૉંચેન્દ્રિય પર્યાપ્ત પર્યાંયથી યુક્ત રહે છે ? શ્રી ભગવાન-હે ગૌતમ ! જઘન્ય અન્તર્મુહૂત' સુધી, ઉત્કૃષ્ટ પૃથકત્વ શત સાગરોપમાં સુધી પંચેન્દ્રિય પર્યાપ્ત જીવ નિરન્તર પચેન્દ્રિય પર્યાપ્ત પર્યાયવાળા છની રહે છે. શ્રી ગૌતમસ્વામી-હે ભગવન્ ! સ-ઇન્દ્રિય અપર્યાપ્ત જીવ કેટલા સમય સુધી સ ઈન્દ્રિય અપર્યંત પર્યાયમાં રહે છે ? શ્રી ભગવાન-હે ગૌતમ ! જઘન્ય પણ અન્તર્મુહૂત અને ઉત્કૃષ્ટ પણ અન્ત હત સુધી સઇન્દ્રિય પર્યાપ્ત જીવ સઇન્દ્રિય અપર્યાય પર્યાપ્તમાં રહેછે. અહી લબ્ધિની અપેક્ષાએ અપર્યાપ્ત સમજવુ જોઇએ. અન્ને રીતે અપર્યાપ્ત અવસ્થા અન્ત હૂ સુધી श्री प्रज्ञापना सूत्र : ४
SR No.006349
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages841
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy