SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१२ प्रज्ञापनासूत्रे अपि अचरमा अपि, एवं यावद् वैमानिकाः, संग्रहणी गाथा-गति स्थिति भवश्च भावाआनप्राणचरमश्च बोद्धव्याः । आहारभावचरमो वर्णरसो गन्धस्पर्शश्च ॥१॥ इति दशमं चरमाचरमपदम् समाप्तम् ।। सू० ७॥ टीका-पूर्व परिमण्डलादि संस्थानानि चरमाचरमादि विभागपूर्वकं प्ररूपितानि, अय जीवादीन चरमाचरमविभागपूर्वकं प्ररूपयितुमाह 'जीवे णं भंते ! गतिचरमेणं किं चरमे, अचरमे ?' गौतमः पृच्छति हे भदन्त ! जीवः खलु गतिचरमेण-गतिरुपत्तिस्तत्पर्यायरूपं चरम गतिचरमं, तेन उत्पत्तिपर्यायरूप चरमेणेत्यर्थः किं 'चरमः' इति व्यपदिश्यते १ किं पा 'अचरमः' इति व्यपदिश्यते ? भगवान् आह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'सिय चरमे सिय रमा ?) हे भगवन् ! नैरयिक स्पर्श-चरम से चरम हैं या अचरम हैं ? (गोयमा ! चरमा वि, अचरमा वि) हे गौतम ! चरम भी हैं, अचरम भी है (एवं जाव वैमाणिया) इसी प्रकार वैमानिकों तक । (संगहणिगाहा) संग्रहणीगाथा-गति, स्थिति, भव, भाषा, श्वासोच्छ्वास, आहार, भाव, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से चरम-अचरम की वक्तव्यता। ॥चरमपद समाप्त ॥ टीकार्थ-इससे पूर्व चरम आदि विभाग पूर्वक परिमंडलसंस्थान आदि का विचार किया गया था, अब जीवादि की चरमा चरम विभाग पूर्वक प्ररूपणा की जाती है गौतमस्वामी ! प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! जीव क्या गति चरम से चरम है अथवा अचरम है ? अर्थात् गति पर्याय रूप चरम की अपेक्षा विचार किया जाय तो जीव चरम है या अचरम है ? भगवान्-हे गौतम ! गति चरम की अपेक्षा से विचार करने पर कोई जीव सुधी (नेरइयाणं भंते ! फोस चरमेणं किं चरमा, अचरमा ?) 3 मावन् ! नयि २५श यमयी यम छे मगर मयरम छ ? (गोयमा ! चरमा वि अचरमा वि) गौतम ! २२म ५४ छ अन्यरम ५४ छ (एवं जाव वेमाणिया) मे १२ वैमानि: सुधी (संगहणि गाहा) सी या-ति, स्थिति, म१, भाषा, सारथ्यास, આહાર, ભાવ, વર્ણ, ગંધ, રસ અને પશથી ચરમ અચરની વક્તવ્યતા છે ચરમ પદ સમાપ્ત ટીકાર્ય :આનાથી પહેલાં ચરમ આદિ વિભાગ પૂર્વક પરિમંડલ સંસ્થાન આદિને વિચાર કર્યો હતે હવે જીવાદિની ચરમાચરમ વિભાગ પૂર્વક પ્રરૂપણ કરાય છે. શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન કરે છે– હે ભગવન્ ! જીવ શું ગતિ ચરમથી ચરમ છે અથવા અચરમ છે? અર્થાત્ ગતિ પર્યાય રૂપ ચરમની અપેક્ષાએ વિચાર કરાય તે જીવ ચરમ છે અગર તે અચરમ છે? શ્રી ભગવાન હે ગૌતમ ! ગતિ ચરમની અપેક્ષાએ વિચાર કરવાથી કઈ જવા श्री प्रशान। सूत्र : 3
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy