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________________ प्रज्ञापनासूत्रे न्तप्रदेशाः, अचरमान्तप्रदेशाः, असंख्येयगुणाः, चरमान्तप्रदेशाश्च अचरमान्तप्रदेशाश्च द्वयेऽपि विशेषाधिकाः, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया सर्वस्तोकम् अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्या एकम् अचरमम् चरमाणि असंख्येयगुणानि, अचरमं चरमाणि च द्वयान्यपि विशेषाधिकानि, चरमान्तप्रदेशाः असंख्येयगुणाः, अचरमान्तप्रदेशाः असंख्येयगुणाः, चरमान्तप्रदेशाश्च अचरमान्तप्रदेशाश्च द्वये. ऽपि विशेषाधिकाः, एवं यावद् अधःसप्तम्याः, सौधर्मस्य यावद् लोकस्य एवञ्चैव ॥सू० २।। टीका-अथ पूर्वोक्त रत्नप्रभादिषु प्रत्येकं चरमाचरमादिगतमल्पबहुत्वं प्ररूपयितुमाहभाए पुढवीए) इस रत्नप्रभा पृथिवी के (चरमंतपएसा) चरमान्तप्रदेश हैं (अचरमंतपएसा असंखेज्जगुणा) अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणा हैं (चरमंतपदेसा य अचरमंतपदेसाय दोवि विसेसाहिया) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों विशेषाधिक हैं (दव्वट्ठपएसट्टयाए) द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा (सव्व त्थोवा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे अचरिमे) सब से कम इस रत्नप्रभा पृथ्वी का एक अचरमे है (चरमाई असंखेज्जगुणाई) चरमाणि असंख्यातगुणा हैं (अचरिमं चरमाणि य दोवि विसेसाहिया) अचरमं और चरमाणि-दोनों विशेषाधिक हैं (चरमंतपएसा असंखेज्जगुणा) चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणा है (अचरमंतपएसा असंखिज्जगुणा) अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणा हैं (चरमंत. पएसा य अचरमंतपएसाय दोवि विसेसाहिया) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों विशेषाधिक हैं (एवं जाव अहेसत्तमाए) इसी प्रकार निचली सातवीं पृथ्वी तक (सोहम्प्रस्स जाव लोगस्स एवं चेव) सौधर्म यावत् लोक तक इसी प्रकार । टीकार्थ-अब रत्नप्रभा पृथ्वी आदि प्रत्येक के चरम अचरम आदि संबंधी अपाथी छ। (इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए) 24॥ २(नामा पृथ्वीना (चरमंतपएसा) य२भान्त प्रदेश छे (अचरमंतपएसा असंखेज्जगुणा) अयमान्त प्रदेश मसभ्याता छ (चरमंतपएसाए य अवरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया) यरमांत प्रश भने मय२भान्त प्रदेश मन्न विशेषाधि४ छ (दव्वटुपएसट्टयाए) द्रव्य भने प्रदेशानी न्मपेक्षu (सव्व त्थोवा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे अचरिमे) माथी छ। मा २त्नमा पृथ्वीना से मयम छ (चरमाइं असंखेज्जगुणाई) यरमा मध्यात छे (अचरिमं चरमाणि य दोवि विसेसाहिया) मय२५ भने यसमा सन्न विशेषाधि छ (चरमंतपएसा असंखेज्ज गुणा) य२मान्त प्रदेश अध्यात छ (अचरमंतपएसा असखिज्जगुाणा) अयभान्त प्रदेश मसण्यात (चरमंतपएसा य अचरमंतपएसा य दोवि विसेसाहिया) य२. भान्त प्रदेश भने सयभान्त प्रदेश मन्ने विशेषाधि छ (एवं जाव अहेसत्तमाए) से प्रारे नायनी सातमी पृथ्वी सुधा (सोहम्मस्स जाव लोगस्स एवं चेव) सौधम यावत् લેક સુધી એજ પ્રકારે ટીકાર્ય - હવે રત્નપ્રભા પૃથ્વી આદિ પ્રત્યેકના ચરમ, અચરમ આદિ સંબંધી श्री प्रशाना सूत्र : 3
SR No.006348
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages955
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size62 MB
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