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________________ ९७० प्रज्ञापनासूत्र चउबिसं मुहुत्ता' जघन्येन एक समयम्, उत्कृष्टेन चतुर्विंशति मुहूर्तान् यावत् रत्नप्रभापृथिवी नैरयिकाः उद्वर्तनया विरहिताः प्रज्ञप्ताः, 'एवं सिद्धवज्जा उवट्टणा वि भाणियव्वा जाव अणुत्तरोववाइयत्ति' एवम् पूर्वोक्तोपपातरीत्या सिद्धवर्जासिद्धवर्जिता, उद्वर्तनापि भणितव्या वक्तव्या यावत्-शर्कराप्रभापृथिवी नैरयिकादि असुरकुमारादि दश भवनपति-पृथिवीकायिकादि पञ्चैकेन्द्रियविकलेन्द्रियसंमूछि. मगर्भव्युत्क्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकमनुष्यवानव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मादि द्वादशवैमानिकदेव नव ग्रैवेयक विजयादि पश्चानुत्तरौपपातिका इत्यन्तम्, किन्तु 'णवरं जोइसियवेमाणिएमु चयणंति अहिलावो कायव्यो' नवरम्-पूर्वोक्तापेक्षया विशेषस्तु ज्योतिष्कवैमानिकेषु च्यवनमिति अभिलापः कर्तव्यः, न तु उद्वर्तना इत्यभिलापः, ज्योतिष्कवैमानिकानां च्यवनस्यैव संभवेन तेषामुद्वर्तनाया अभावादित्याशयः, 'दारं द्वितीयं चतुर्विशति मुहूर्तविषयकं द्वारं समाप्तम् । विरह का जघन्य काल तक एक समय और उत्कृष्ट काल चौवीस मुहूर्त है। उद्वर्त्तना के विरह का यही काल सिद्धों को छोड कर अनुत्तरोपपातिक विमानों तक सर्वत्र कह लेना चाहिए अर्थात् शर्कराप्रभा आदि के नारकों, असुर कुमार आदि दश भवनपतियों, पृथिवी कायिक आदि पांच एकेन्द्रियों विकलेन्द्रियों संमूर्छिम तथा गर्भजतिर्यच पंचेन्द्रियों, मनुष्यों, वानव्यन्तरों, ज्योतिष्कों, सौधर्मादि द्वादश कल्पोपपन्न देवों नवग्रैवेयक देवों और विजय आदि पांच अनुत्तरविमानों के देवों तक यही उद्वत्तना के विरह का काल कहना चाहिए किन्तु ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में उद्वर्तना, शब्द का प्रयोग न करके च्यवन, शब्द का प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि इन दोनों जातियों के देवों का उद्वर्तन नहीं होता है, पर च्यवन होता है, अर्थात् ये देव मरकर ऊपर से नीचे आते हैं, नीचे से ऊपर नहीं जाते ॥३॥ चतुर्विशति द्वार समाप्त હિને જઘન્ય કાળ એક સમય અને ઉત્કૃષ્ટ કાળ જેવીસ મુહૂર્ત છે. ઉદ્વર્તન નાના વિરહને આજ કાળ સિદ્ધોને છોડીને અનુત્તરીપ પાતિક વિમાને સુધી સર્વત્ર કહેવું જોઈએ. અર્થાત્ શર્કરા પ્રભા આદિના નારક, અસુરકુમાર આદિ દશ ભવનપતિ, પૃથ્વીકાયિક આદિ પાંચ એકેન્દ્રિ, વિલેન્દ્રિ, સંમૂછિમ તથા ગભજ તિર્યંચ પંચેન્દ્રિ, વનવ્યન્તરે, તિષ્ક, સૌધર્માદિ બાર કલ્પપન્ન દેવ, નવ વેયક દે, અને વિજ્ય આદિ પાંચ અનુત્તર વિમાન દે સુધી આજ ઉદ્વર્તાનાના વિરહને સમય કહેવું જોઈએ. પરંતુ જેતિક અને વૈમાનિક દેવમાં “ઉદ્વર્તના” શબ્દને પગ ન કરીને “ચ્યવન શબ્દને પ્રયોગ કરવો જોઈએ, કેમકે એ બન્ને જાતિના દેવેની ઉદ્વર્તના શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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