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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ५ सू१५ जघन्यगुणकालकादिपर्यायनिरूपणम् ८७९ नववम्-अवगाहनार्थतया प्रदेशपरिद्धिः कर्तव्या, यावद् दशप्रदेशिकस्य नवप्रदेशाः वर्द्धिष्यन्ते, जघन्यगुणशीतानां संख्येयप्रदेशिकानां पृच्छा, गौतम ! अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? तत् केनार्थेन-भदन्त ! एवमुच्यते- जघन्यगुणशीतानां संख्येयप्रदेशिकानामनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः गौतम ! जघन्यगुणशीतः संख्येयप्रदेशिको जघन्यगुणशीतस्य संख्येयप्रदेशिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया भी इसी प्रकार (नवरं सहाणे छट्टाणवडिए) विशेष यह कि वह स्वस्थान में षट्रस्थानपतित है (एवं जाव दसपएसिए) इसी प्रकार दशप्रदेशी स्कंध तक कहना चाहिए (णवरं ओगाहणट्टयाए पएसवुडढी कायव्या) विशेष यह कि अवगाहना की अपेक्षा से प्रदेशों की वृद्धि करनी चाहिए (जाव दसपएसियस्स नव पएसा वड्डिजति) यावत् दशप्रदेशी के नव प्रदेश बढते हैं (जहण्णगुणसीयाणं संखेज्जपएसियाणं पुच्छा) जघन्यगुण शीत संख्यात प्रदेशी स्कंधों की पृच्छा ?) गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम! अनन्त पर्याय कहे हैं (से केणटेणं भंते एवं बुच्चइ-जहण्णगुणसीयाणं संखेज्जपएसियाणं अणंतापज्जवा पण्णत्ता ?) किस कारण से हे भगवन् ! ऐसाकहा जाता है संख्यातपदेशी जघन्यगुण शीत के अनन्त पर्याय हैं ? (गोयमा ! जह ण्णगुणसीए संखेज्जपएसिए जहण्णगुणसीयस्स संखेज्जपएसियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले) जघन्यगुण शीत संख्यातप्रदेशी स्कंध जघन्यगुण शीत संख्यातप्रदेशी स्कंध से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है (पएसट्टयाए ४ारे (नवरं सटाणे छट्ठाणवडिए) विशेष मे ते २१स्थानमा षट्स्थान पतित छ (एवं जाव दस पएसिए) से मारे ४० अशी सुधी नये (नवरं ओगाहणट्टयाए पएसवुड्ढी कायब्वा) विशेष है साइनानी मयेक्षा प्रशानी वृद्धि ४२वी नस (जाव दस पएसियरस नवपएसा वङढिज्जति) यावत् ६० प्रशीना नव प्रदेश १धे छ. (जहण्णगुणसीयाणं संखेज्जपएसियाण पुच्छा ?) ४धन्य गुण शीत संन्यात प्रदेशी ४-धोनी २छ। ? (गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्त ?) गौतम ! मनन्त पर्याय 3 छ (से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चई-जहण्णगुणसीयाणं संखेजपएसियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ?) । કારણે હે ભગવન એવું કહેવાય છે કે સંખ્યાત પ્રદેશી જઘન્ય ગુણ શીતના मनन्त पर्याय छ ? (गोयमा ! जहण्णगुणसीए संखेज्जपएसिए जहण्णसीयस्स संखेज्जपएसिएस्स दव्वयाए तुल्ले) धन्य गुण शीत सध्यात अशी २४५ જઘન્ય ગુણ શીત સંખ્યાત પ્રદેશી સ્કન્ધથી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તુલ્ય છે (Tણ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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