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प्रमेयबोधिनी टीका पद ५१.०१५ जघन्वगुणकालकादिपर्यायनिरूपणम् ८६९ पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, तत् केनार्थेन भदन्त ! एव मुच्यते जघन्यगुणकालकानां द्वि प्रदेशिकानामनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जघन्यगुणकालको द्विप्रदेशिको जघन्यगुणकालकस्य द्विप्रदेशिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः प्रदेशार्थतया तुल्यः, अव. गाहनार्थतया स्याद्धीनः स्यात्तुल्यः, स्यादभ्यधिकः, यदा होनः प्रदेशहीनः, अथाभ्यधिकः प्रदेशाभ्यधिकः, स्थित्या चतुःस्थानपतितः, कृष्णवर्णपर्यवै स्तुल्यः, अवशेषवर्णादिभिरुपरितनचतुःस्पॐ श्च षट्स्थानपतितः, एवमुत्कृष्टगुणकालवुच्चई-जहण्णगुणकालयाणं दुपएसिएयाणं अणंता पउजवा पण्णत्ता ?) किस कारण हे भगवन ! ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुण काले द्विप्रदेशी स्कंध के अनन्त पर्याय कहे हैं ? (गोयमा! जहण्णगुणकालए दुपएसिए) हे गौतम ! जघन्यगुण काला द्विप्रदेशी स्कंध (जहण्णगुणकालियस्स दुपएसियस्स) जघन्यगुण काले द्विप्रदेशी स्कंध से (दव्यदृयाए तुल्ले) द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है (ओगाणट्टयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिए) अवगाहना की अपेक्षा से स्यात् हीन, स्यात् तुल्य स्यातू अधिक (जइ हीणे पएसहीणे) यदि हीन है तो एक प्रदेश से हीन (अह अब्भहिए पएस अब्भहिए) अगर अधिक है तो एक प्रदेश से अधिक (ठिईए चउट्ठाण वडिए) स्थिति से चतुःस्थानपतित (कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले) कृष्णवर्ण के पर्यायों से तुल्य (अवसेसवण्णाइ उवरिल्ल च उफा. सेहि य छट्ठा णवडिए) शेष वर्णादि से तथा ऊपर के चार स्पर्शो से षट्रस्थानपतित होता है। पण्णत्ता) गौतम ! अनन्त पर्याय या छ (से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जहvणगुणकालयाणं दुपएसियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ?) ॥ १२ मगवन् ! એવું કહેવાય છે કે જઘન્ય ગુણ કાળા દ્વિપ્રદેશી સ્કન્ધના અનન્ત પર્યાય ४ह्या छ १ (गोयमा ! जहण्णगुणकालए दुपएसिए) 3 गौतम ! धन्य गुण 31 द्विशी २४५ (जहण्णगुणकालयस्स दुपरसियस्स) धन्य गुण । विदेशी २७५थी (दव्वट्ठयाए तुल्ले) द्रव्यनी अपेक्षा तुक्ष्य छ (पए सट्टयाए तुल्ले) प्रशानी अपेक्षा तुक्ष्य छ (ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अभहिए) म नानी अपेक्षा स्यात् डीन, स्यात् तुझ्य, स्यात् -मधि (जई हीणे पएसहीणे) ने डीन डाय तो मे प्रशथी डीन (अह अभिहिए पएस अब्भहिए) २२ म४ि छ त। ये प्रशथी अधि४ (ठिइए चउद्राणवडिए) स्थितिथी यतु:स्थान पतित (कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले) ४] १ । पर्यायाथी (अवसेस वण्णाई उवरिल्ल चउफासेहि य छट्ठाणवडिए) शेष थी तथा ५. ૨ના ચાર સ્પર્શોથી ષસ્થાન પતિત થાય છે
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨