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________________ प्रबोधिनी टीका पद ५ सू.०१३ परमाणु पुद्गलपर्याय निरूपणम् 7 - वृद्धिः कर्त्तव्या यावद् दशप्रदेशिकः, नवरम् नव प्रदेशहीन इति, संख्येयप्रदेशिकानां पृच्छा, गौतम ! अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - संख्येयप्रदेशिकानां अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! संख्ये यप्रदेfast sortear तुल्यः, प्रदेशार्थतया स्याद्धीनः स्यात्तुल्यः स्यादद्भ्यfarः यदा हीनः संख्ये भागहीनो वा संख्येयगुणहीनो वा, अथाभ्यधिकः एवञ्चैव अवगाहनार्थतयापि द्विस्थानपतितः स्थित्या चतुःस्थानपतितः अधिक होता है ( एवं जाव दसपएसिए) इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशी ( नवरं नवपएसहीणत्ति) विशेष यह कि वह नौ प्रदेशों से हीन तक होता है " ( संखेज्जपए सियाणं पुच्छा ?) संख्यात प्रदेशी स्कंधों की पृच्छा ? (गोयमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं (से केणणं भंते! एवं बुच्च संखिज्जपएसियाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता) हे भगवन किस कारण ऐसा कहा कि संख्यातमदेशी स्कंधों के अनन्त पर्याय कहे हैं (गोयमा ! संखेज्जपएसिए संखेज्जप एसियस्स दव्ययाए तुल्ले) हे गौतम । संख्यातप्रदेशी स्कंध संख्यातप्रदेशी स्कंध से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है ( पएसल्याए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिए) प्रदेशों की दृष्टि से हीन हो सकता है, तुल्य हो सकता है, अधिक हो सकता है (जह हीणे संखेज्जभाग हीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा) यदि हीन है तो संख्यातभाग हीन या संख्यात गुण हीन होता है (अह अन्भहिए एवं चेव ) यदि अधिक हो तो इसी प्रदेश अधि थाय छे ( एवं जाव दस पएसिए) मे रीते यावत् दृश प्रदेशी ( नवरं नव परसहीणत्ति ) विशेष मे ते नव प्रदेशोथी डीन सुधी थाय छे. " શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર :૨ ७८९ ह्या छे ? (गोयमा ! गौतम ! संध्यात ( संखेज्जप एसियाणं पुच्छा ?) संख्यात प्रदेशी सुन्धोनी પૃચ્છા (गोयमा ! अणता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम! अनन्त पर्याय ह्या छे ( से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ - संखिज्जपएसियाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता) हे भगवन् ! शार मेषु॑ ऽधुं छे } संख्यात प्रदेशी सुन्धाना अनन्त पर्याय संखेज्जपएसिए संखेज्जपएसियस्स दव्वट्टयाए तुल्ले) हे अद्वेशी २४न्ध सौंध्यात प्रदेशी अन्धथी द्रव्यनी अपेक्षा तुल्य छे (पएस ट्टयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अव्भहिए ) प्रदेशोनी दृष्टिसे डीन था श छे, तुझ्य यहाँ शडे छे. अधि था शडे छे (जइ हीणे संखेज्ज भागहीणे वा संखेज्जगुण हीणे वा) ले डीन होय तो संख्यात लाग डीन वा संख्यात गुणुडीन थाय छे. (अह अब्भहिए एवं चेव) ले अधिक होय तो मा प्रहारे संख्यात लाग
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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