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________________ प्रज्ञापनासूत्रे छाया - जघन्यावगाहनकानां भदन्त ! नैरयिकाणां कियन्तः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अनन्ताः पर्ययाः प्रज्ञप्ताः, तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेजघन्यावगाहनकानां नैरयिकाणामनन्ताः पर्ययाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जघन्याव - गानको नैरयिको जघन्यावगाहन कस्य नैरयिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशातया तुल्यः, अवगाहनार्थतया तुल्यः स्थित्या चतुःस्थानपतितः, वर्णगन्धरसस्पर्श पत्रिभिर्ज्ञानैः त्रिभिर्दर्शनैः षट् स्थानपतितः, उत्कृष्टावगाहनकानां नैरयिक पर्याय वक्तव्यता ६२० शब्दार्थ - ( जहणोगाहणगाणं भंते! नेरइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले नैरयिकों के कितने पर्याय कहे हैं ? (गोमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं (सेकेण्डेणं भंते! एवं वुच्चर - जहण्णोगाहणगाणं नेरइयाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले नारकों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? (गोयमा ! जहण्गोनाहणए नेरइए जहण्णोगाहणस्स नेरइयस्स दबाए तुल्ले) हे गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला नारक दूसरे जघन्य अवगाहना वाले नारक से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है ( पसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है (ओगाह याए तुल्ले) अवगाहना से तुल्य है (ठिईए चउट्ठाणचडिए) स्थिति से चतुःस्थानपतित है ( वण्ण-गंध-रस - फास पज्जवेहिं) वर्ण, गंध, रस स्पर्श के पर्यायों से (तिहि नाणेहिं) तीन ज्ञानों से (तिहिं अण्णाનૈયિક પર્યાય વક્તવ્યતા " शब्दार्थ - (जहण्णोगा हणगाणं भंते! नेरइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? ) डे लगवन् ! धन्य अवगाहनवाजा नैरयिना डेंटला पर्याय ह्या छे ? (गोयमा ! अनंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम! अनन्तपर्याय ४६ । छे (से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ - जहणोगाहणगाणं नेरइयाणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! शा કારણે એમ કહેવાય છે કે જઘન્ય અવગાહના વાળા નારકોના અનન્ત પર્યાય छे (गोयमा ! जहण्णोगाणए नेरइए जहण्णोगाहणस्स नेरइयस्स दव्वटुयाए तुल्ले) હે ગૌતમ ! એક જઘન્ય અવગાહનાવાળા નારક ખીજા જઘન્ય અવગાહનાવાળા नार४थी, द्रव्यनी अपेक्षा तुझ्यछे (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशानी अपेक्षाओ तुझ्यछे (ओगाहणट्टयाए तुल्ले) भवगाडनाथी तुल्य छे (ठिईए चउट्ठाणवडिए) स्थितिथी यतुःस्थान पतित छे (वण्ण गंध, रस - फास पज्जवेहिं ) वर्षा, गंध, रस, स्पर्शना पर्यायोथी (तिहिं नाणेहिं) त्रषु ज्ञानोथी (तिहिं अण्णाणेहिं) શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર :૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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