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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ४ सू०३ पृथिवीकायादीनां स्थितिनिरूपणम् ४६७ मुहूर्तम्, पर्याप्तकाकायिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन सप्तवर्षसहस्राणि, अन्तर्मुहूर्तीनानि, सूक्ष्माप्कायिकानाम् औधिकानाम् अपर्याप्तकानां पर्याप्तकानां च यथा सूक्ष्मपृथिवीकायिकानां तथा भणितव्यम् बादराकायिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेन सप्तवर्षसहस्राणि, अपर्याप्तकवादराप्कायिकानां पृच्छा, गौतम ! जघन्येनापि उत्कृष्टेनापि अन्त( जहण्णेण वि अतोमुहुतं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्स, उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त (पज्जत्तय आउकाइयाणं पुच्छा ?) ( पर्याप्त अष्कायिकों की स्थिति की पृच्छा ? (गोयमा) हे गौतम ! (जहणेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं सत्तवास सहस्साई अंतोमुहतूणाई) जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त कम सात हजार वर्ष की (सुम आउकाइयाणं ओहियाणं अपज्जत्तयाणं पज्जन्त्तयाण य) सूक्ष्म अष्कायिकों के औधिक (सामान्य), अपर्याप्त और पर्याप्त की स्थिति ( जहा सुम पुढविकाइयाणं तहा भाणियन्वं) जैसी सूक्ष्म पृथिवीकायिकों की कही वैसी कहना चाहिए । (बायर आउकाइयाणं पुच्छा ?) बादर अष्कायिकों की स्थिति की पृच्छा ? (गोधमा ) हे गौतम! (जहण्णेणं अंतोमुहतं, उक्कोसेणं सत्तवाससहस्साइं ) जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त की उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की ( अपज्जत्तय वायर आउकाइयाणं पुच्छा ?) अपर्याप्त बादर अपकायिकों की स्थिति की पृच्छा ? (गोयमा) हे गौतम ! ( जहणेण वि स्थिति पृछा ? (गोयमा ! ) डे गौतम ! ( जहणेण वि अतोमुहुतं उक्कोसेणं वि अतोमुहुत्तं) ४धन्यथी पशु अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्टथी पण अन्तर्मुहूर्त (पज्जत्तय आउकाइयाणं पुच्छा) पर्याप्त अयुअयिनी स्थितिनी पृथ्छा ? (गोयमा !) हे गौतम! ( जहण्णेणं अतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं सत्तवाससहस्साई अंतोमुहुत्तणाई) धन्य अन्तर्भुङ्क्र्तनी उद्धृष्ट अन्तर्मुहूर्त शोछा सात डेन्जर वर्षानी (सुहुमआउकोइयाण; ओहियाणं अपज्जत्तयाणं पज्जत्तयाण य) सूक्ष्म अयुमायिनी सौधि (सामान्य) अपर्याप्त भने पर्याप्सनी स्थिति ( जहा सुहुमपुढविकाइयाणं तहा भाणियां) नेवी सूक्ष्म पृथ्वीअयिोनी उही छे तेवी डेवी लेाये (बायर आउकाइयाणं पुच्छा ?) माहर अयुअयिोनी स्थितिनी पृच्छा (गोयमा !) डे गौतम ! ( जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सत्तवाससहस्साइं ) ४६. न्य अन्तर्मुहूर्तनी, उत्दृष्ट सात इन्नर वर्षानी ( अपज्जत्तय बायर आउकाइयाणं पुच्छा ?) अपर्याप्त महर मायिनी स्थितिनी पृच्छा ? (गोयमा !) डे શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર :૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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