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॥ श्री वीतरागाय नमः॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्रीघासीलालपतिविरचितया प्रमेयबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम्
हिन्दीगुर्जरमापानुवादसहितम् ॥श्री-प्रज्ञापनासूत्रम् ॥
द्वितीयो भागः
तृतीयमल्पयहुत्वपदम्मूलम्-द्वारसंग्रहगाथाद्वयम्-दिसिं गई, इंदिय, काएं, जोए, ए, कसाय, लेस्सा य । सम्मत्तं नाणदसणं संजय उJओग आहारे। भासंग परित्तै पजत सुहम सन्नी भवऽथिएँ चरिमे । जीवे ये खितं बंधे"पुग्गले महदंए चेव ॥
छाया-दिक्१, गतिः२, इन्द्रियाणि ३, कायः४, योगः५, वेद६, कषायः७, लेश्या च८ । सम्यक्त्वम् ९, ज्ञानम् १०, दर्शनम्११, संयतः१२, उपयोगः१३, आहारः१४, भाषकः१५, परीता:१६, पर्याप्ता:१७, सूक्ष्मा:१८, संज्ञिनः१९, भवः२०, अस्तिकम् २१, चरमः२२, जीवश्च२३, क्षेत्रम्,२४, बन्धः२५, पुद्गल:२६, महादण्डकः२७॥
तीसरा पद-अल्पबहुत्व शब्दार्थ-(दिसि) दिक (गइ) गति (इंदिय) इन्द्रिय (काए) काय (जोए) योग (वेए) वेद (कसाए) कषाय (लेस्सा) लेश्या (य) और (सम्मत्तं) सम्यक्त्व (नाण) ज्ञान (दसणं) दर्शन (संजय) संयत (उचओग) उपयोग (आहारे) आहार ॥१७१।।
(भासग) भाषक (परित्त) परीत (पज्जत्त) पर्याप्त (सुहम) सूक्ष्म (सन्नी) संज्ञी (भय) भय (अथिए) अस्तिक (चरिमे) चरम (जीवे)
ત્રીજું પદ–અ૮૫ બહત્વ शा-(दिसि) दिशा (गइ) गति (इंदिय) घन्द्रिय (काए) या (जोए) या (वेए) वे (कसाय) ४५ाय (लेस्सा) सेश्या (य) मने (सम्मत्तं) सभ्य इ.५ (नाणं) ज्ञान (दसणं) शन. (संजय) सयत (उवओग) 8५।२८ (आहारे) આહાર છે ૧૭૧ છે
(भासग) भाष४ (परित्त) ५रीत (पज्जत्त) ५f (सुहुम) सूक्ष्म (सन्नी)
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨