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प्रमेयबोधिनी टीका पद ६ सू.१४ असुरकुमाराद्युद्वर्तनानिरूपणम् १९९५ पृथिवीकायिकेषु उपपद्यन्ते, अपर्याप्तकवादरपृथिवीकायिकेषु उपपद्यन्ते ? गौतम ? पर्याप्तकेषु उपपद्यन्ते, नो अपर्याप्तकेषु उपपद्यन्ते, एवं अव्वनस्पतिष्यपि भणितव्यम्, पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकमनुष्येषु च यथा नैरयिकाणाम्-उद्वर्तना संम्च्छिमवर्जा तथा भणितव्या, एवं यावत्-स्तनितकुमाराः, पृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! अनन्तरम् उदृत्य कुत्र गच्छन्ति, कुत्र उपपद्यन्ते ? किं नैरयिकेषु यावत् -देवेषु-गौतम ? नो नैरयिकेषु, तिर्यग्योनिकमनुष्येषु उपपद्यन्ते, नो देवेषु विकाइएसु) क्या पर्याप्त बादरपृथ्वीकायिकों में (उववति) उत्पन्न होते हैं (अपज्जत्तयवायरपुढविकाइएस्सु उववज्नंति) अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं (गोयमा ! पज्जत्तएप्लु उववज्जंति) गौतम ! पर्याप्तकों में उत्पन्न होते हैं (नो अप अपज्जत्तएमु उबवज्जंति) अपर्याप्तकों में उत्पन्न नहीं होते (एवं) इसी प्रकार (आउवणस्सइसु वि भाणियम्बं) अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों के विषय में भी कहना चाहिए (पंचिंदिय तिरिक्खजोणियमणुस्सेतु य) पंचेन्द्रिय तिर्यचों और मनुष्यो में (जहा)जिस प्रकार (नेरइयाणं) नारकों की (उव्वदृणा)उद्वर्तना (समुच्छिमवज्जा) संमूछिमों को छोड कर) तहा भाणियव्या) उसी प्रकार कहना चाहिए (एवं जाव थणियकुमारा) इसी प्रकार स्तनित कुमारों तक
(पुढविकाइयाणं भते ! अणंतरं उध्वहित्ता कहिं गच्छंति ?) पृथ्वीकायिक सीधे निकलकर कहां जाते हैं ? (कहिं उववज्जंति) कहां उत्पन्न होते हैं ? (किं नेरईएसु जाव देवेसु) क्या नारकों में यावत् देवों में ? थाय छ ? (अपज्जत्तयबायर पुढविकाइएसु उबवज्जति) अपर्याप्त मा६२ पृथ्वी. यिमा ५न्न थाय छ १ (गोयमा ! पब्जत्तरसु उववज्जति) गौतम ! पर्यात
मां 4-1 थाय छे. (नो अपज्जत्तएसु उववज्जति) १५र्यातीमा उत्पन्न नयी थता (एवं) मे ५४॥२ (आउवणस्सइसु वि भाणियव्व) २४५4। मने वनस्पति या विषयमा ५ ४ नये. (पंचिंदियतिरिक्खजोणिय मणस्सेसु य) ययन्द्रिय तिय यां मने मनुष्यमा (जहा) २ रीते (नेरइयाणं) नानी (उलट्टणा) वतन(संमुच्छिम वज्जा) स भूछिभाने छडीन (तहा भाणियव्वा) मे रे ४३ . (एवं जाव थणियकुमरा ?) २४ मारे સ્તનિકુમાર સુધી.
(पुढविकाइयाणं भंते ! अणंतरं उवद्विताकहिं गच्छन्ति ?) सन् ! पृथ्वीयि सीधा नितीने ४यां तय छ : (कहिं उववज्जति ?) ४यां उत्पन्न थाय छ? (कि नेरइएसु जाव देवेसु) शु नारीमा यात हेवानi (गोयमा ! (नो
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨