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________________ ७६६ प्रज्ञापनासूत्रे अष्टत्रिंशद् भवनावासशतसहस्राणि भवन्ति इत्याख्यातं, तानि खलु भवनानि बहिर्वृत्तानि यावत् प्रतिरूपाणि, अत्र खलु दाक्षिणात्यानां सुवर्णकुमाराणाम् पर्याप्तापर्याप्तानाम् स्थानानि प्रज्ञप्तानि, त्रिष्वपि लोकस्य असंख्येयभागः, अत्र खलु बहवः सुवर्णकुमारा देवाः परिवसन्ति, वेणुदेवश्चात्र सुवर्णकुमारेन्द्रः, सुवर्णकुमारराजः परिवसति. शेषं यथा नागकुमाराणाम् कुत्र खलु भदन्त ! औत्तरा हाणाम् सुवर्णकुमाराणाम् देवानाम् पर्याप्ता पर्याप्तकानाम् स्थानानि प्रज्ञप्तानि ? कुत्र (भवणावाससयसस्सा) लाख भवन (भवंतीति मक्खायं) हैं, ऐसा कहा है (ते णं भवणा) वे भवन (बाहिं वहा) बाहर से गोल (जाव पडिरूवा) यावत् प्रतिरूप हैं (एत्थ णं) यहां (दाहिणिल्लाणं) दक्षिणी (सुवण्णकुमाराणं) सुपर्णकुमारों के (पज्जत्तापज्जत्ताणं) पर्याप्तों और अपर्याप्तों के (ठाणा) स्थान (पण्णत्ता) कहे हैं (तिसु वि) तीनों अपेक्षाओं से (लोगस्स) लोक के (असंखेज्जइभागे) असंख्यातवें भाग में (एत्थ णं) यहां (वहवे) बहुत (सुवण्णकुमारा देवा) सुपर्णकुमार देव (परिवसंति) वसते हैं (वेणुदेवे य) वेणुदेव (इत्थ) यहां (सुवण्णकुमारिंदे) सुपर्णकुमारेन्द्र (सुवण्णकुमार राया) सुपर्णकुमार राजा (परिवसइ) वसता है (सेस) शेष (जहा) जैसे (नागकुमाराणं) नागकुमारों का (कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्ता. पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! उत्तर दिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान कहां कहे हैं ?) (कहि णं भंते ! सयसहस्सा) envi अपन (भवंतीति मक्खायं) छे सेम ४यु छ (ते णं भवणा) त भवन (बाहिं वट्टा) सारथी ग (जाव पडिरूवा) यावत् प्रति३५ छ (एत्थ ) मा (दाहिणिल्लाण) दक्षिणी (सुवण्णकुमाराणं) सु माराना (पज्जत्तापज्जत्ताणं) पर्याप्त मने अपर्याप्ताना (ठाणा) स्थान (पण्णत्ता) हां छ (तिसु वि) ऋणे अपेक्षामाथी (लोगस्स) सोना (असंखेजइभागे) असभ्यातमा मामा (एत्थणं) २03 (बहवे) घ (सुवण्णकुमारा देवा) सुपमा हे। (परिवसंति) से छे (वेणुदेवेय) वाहेव (इत्थ) Pाडी (सुवण्णकुमारिंदा) सुवर्ण भारेन्द्र (सुवण्णकुमार राया) सुवर्णमा२ २०d (परिवसइ) से छे (सेस) शेष ४थन (जहा) यथा (नागकुमाराणं) नामाना। (कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ?) हु सावन उत्तर हिशानां पर्याप्त मने अपर्याप्त सुवर्ण भार देवान स्थान ४यां Rai छ ? (कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला सुवण्णकुमारा देवा શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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