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________________ प्रमेयबोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.१ पृथ्वीकायिकानां स्थानानि ५५३ तोरणेषु द्वीपेषु समुद्रेषु, अथ खलु बादरपृथिवीकायिकानां पर्याप्तकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि । उपपातेन लोकस्यासंख्येयभागे, समुद्घातेन लोकस्यासंख्येयभागे, स्वस्थानेन लोकस्यासंख्येयभागे । कुत्र खलु भदन्त ! बादर पृथिवीकायिकानामपर्याप्तकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! यत्रैव बादरपृथिवी कायिकानां पर्याप्तकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि तत्रैव वादरपृथिवीकायिकानामपर्याप्तकानां स्थानानि भरतवर्ष आदि वर्षों में (वासहरपच्चएस) हिमवान् आदि वर्षधर पर्वतों में (बेलासु) समुद्र के ज्वार की भूमि में ( वेड्यासु) वेदिकाओं में (दारेसु) द्वारों में (तोरणेसु) तोरणों में (दीवेसु) द्वीपों में (समुद्देसु) समुद्रों में । ( एत्थ णं बायरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता) इन उपर्युक्त भूमियों में बादरपृथिवीकायिक पर्याप्तकों के स्थान कहे हैं ( उववारण) उपपात की अपेक्षा से (लोयस्स असंखेज्जभागे) लोक के असंख्यातवें भाग में । (समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे) समुघात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में। (सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे) स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में । ( कहि णं भंते! बायर पुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता) भगवन् ! बादरपृथिवीकायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहां कहे हैं ? ( गोयमा ! जत्थेव बायरपुढविकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता) हे गौतम ! जहां बादरपृथिवीकायिक पर्याप्तकों के स्थान कहे हैं (तस्थेव नभेला पर्वताभां (बासेसु) भरतवर्ष आहि वर्ष क्षेत्रमा (वासहरपव्वएस) हिम वान विगेरे पर्वतोभ (वेलासु) समुद्रनी भरतीनी भूमिमां (वेइयासु) वेहिभां (दारेसु) द्वारामां (तोरणेस) तोरणाभां (दीवेसु) द्वीपोभां (समुद्देसु) समुद्रोमां (एत्थ णं बायरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता) मा उपर्युक्त भूमि योभां बाहर पृथ्वी अयि पर्याप्तना स्थान ह्या छे (उपवाएणं) उपपातनी अपेक्षाओ (लोयस्स असंखेज्जइभागे) बोना असण्यातमा लागभां (समुग्धापणं लोयस्स असंखेज्जइमागे) समुद्घातनी अपेक्षाये सोडना असण्यातमा लागभां (सट्टा लोस्स असंखेज्जईभागे) स्वस्थाननी अपेक्षाये सोना असण्यातमां भागभां (कणिं भंते! वारपुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता) हे भगवन् महर पृथ्वी अयिउना अपर्याप्त अना स्थान या उद्यां छे ? (गोयमा ! जत्थेव बारपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठणा पण्णत्ता) हे गौतम! न्यां બાદર પૃથિવી आयिष्ठ पर्याप्तोना स्थान ह्या छे (तत्थेव बायरपुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता) त्यांन बाहर पृथ्वीश्रयि अपर्याप्तमेना स्थान उद्यां छे (उववाएणं) प्र० ७० શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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