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________________ ४५४ प्रज्ञापनासूत्रे 'से किं तं इड्रिपत्तायरिया ?"-'से'-अथ के ते-कतिविधा इत्यर्थः ऋद्धि प्राप्ताः ? भगवानाह-'इडिपत्तायरिया छव्विहा पण्णत्ता'-ऋद्धिप्राप्ताः षडूविधाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' -तद्यथा-'अरहंता'-अर्हन्तः१, 'चक्कवट्टी'-चक्रवर्तिनः२, 'बलदेवा'-बलदेवाः३, 'वासुदेवा' वासुदेवाः४, 'चारणा'-चारणाः५, 'विजाहरा' विद्याधराः६,-प्रकृतमुपसंहरनाह-'से तं इडिपत्तायरिया'-ते एते-पूर्वोक्ताः, ऋद्धि प्राप्ताः प्रज्ञप्ताः। ___ अथानृद्धि प्राप्तार्यान् प्ररूपयितुमाह-'से किं तं अणिडिपत्तायरिया ?'-अथ के ते कतिविधा इत्यर्थः अनृद्धिप्राप्तार्याः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-'अणिडिपत्तायरिया णवविहा पण्णत्ता ?'-अनृद्धिप्राप्तार्या नवविधा:-नव प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा-'खेत्तारिया'-क्षेत्रार्याः १, 'जाति आयरिया'-जात्यार्याः२, 'कुलारिया' कुलार्याः३, 'कम्मायरिया'-कार्याः४, 'सिप्पारिया'-शिल्पार्याः५, 'भासारिया' भाषा:६, 'नाणारिया' --ज्ञानार्याः 9, 'दसणारिया'-दर्शनार्याः८, 'चारित्तारिया' चारित्रार्याश्व९, तत्र क्षेत्रम्-उत्पत्तिस्थानम् आर्य-श्रेष्ठं क्षेत्रं येषां ते क्षेत्रार्याः की ऋद्धि प्राप्त हो ये ऋद्धिप्राप्त आर्य कहलाते हैं और जिन्हें कोई ऋद्धि प्राप्त न हो, मगर आर्य हो वे अऋद्धिप्राप्त आर्य कहे गए हैं। अब ऋद्धिप्राप्त आर्यों की प्ररूपणा का जाती है-ऋद्धिप्राप्त आर्य कितने प्रकार के हैं ? भगवान् ने कहा-वे छह प्रकार के होते हैं-(१) तीर्थकर (१) चक्रवर्ती (३) बलदेव (४) वासुदेव (५) चारण और (६) विद्याधर । ये ऋद्धिप्राप्त आर्य हैं । अद्विप्राप्त आर्य नौ प्रकार के हैं । वे इस प्रकार हैं-(१) क्षेत्रार्य (२) जात्यार्य (२) कुलार्य (४) कार्य (५) शिल्पार्य (६) भाषार्य (७) ज्ञानार्य (८)दर्शनार्य और (९)चारित्रार्य क्षेत्र अर्थात् जन्म स्थान जिनका श्रेष्ठ हो ये क्षेत्रार्य कहलाते हैं, क्योंकि वे श्रेष्ठ क्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं । जिनकी आगे कही जाने वाली હવે રૂદ્ધિપ્રાપ્ત આર્યોની પ્રરૂપણ કરાય છે રૂદ્ધિપ્રાપ્ત આર્ય કેટલા પ્રકારના છે? श्री लगवाने ४यु-तो छ प्र४॥२॥ छ (डाय छ)-(१) तीथ ४२ (२) यवती (3) मसहेव (४) वासुदृ५ (५) या२९ मने (6) विद्याध२ २॥ ३द्धि प्रात माय छे. मनास माय नौ प्रा२ना छ. ते॥ २॥ शत-(१) क्षेत्राय (२) त्याय (3) साय (४) (५) शिपाय (6) सापाय (७) ज्ञानाय (८) शना (6) यात्रिय ક્ષેત્ર અર્થાત્ જન્મ સ્થાન જેએનું શ્રેષ્ઠ હેય તેઓ ક્ષેત્રાય કહેવાય છે. શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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