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प्रज्ञापनासूत्रे ___टीका-'जस्स मूलस्स भग्गस्स समो भंगो पदीसए' इत्यादिना पूर्वोक्तं लक्षणं स्पष्टतया प्रतिपादयितुमाह-'चक्कागं भज्जमाणस्त, गंठी चुन्नघणे भवे । पुढवि सरिसेण भेएण, अगंतजीवं वियाणाहि॥८०॥ 'भज्जमाणस्स'-यस्य भज्यमानस्य-त्रोटयमानस्य मूलकन्दस्कन्धत्वक्शाखापत्रपुष्पादे भङ्गस्थानम् 'चक्कागं' चक्रकं-चक्राकारम् एकान्तेन समं भवति तन्मूलादिकम् 'अणंत जीवं' अनन्तजीवम् 'वियाणाहि'-विजानीहि इत्यन्वयः, तथा-यस्य भज्यमानस्य मूलकन्दस्कन्धत्वक्शाखापत्रपुष्पादेः 'गंठी' ग्रन्धिः-पर्वभङ्गस्थानं वा 'चुन्नघणे' चूर्णघन:-चूर्णेन रजसा घनो-व्याप्तः 'भबे' भवति, अथवा यस्य पत्रादे भज्यमानस्य चक्राकारं भङ्गविना, ग्रन्थिस्थाने रजसा ब्याप्तिश्च विनैव 'पुढवि उद्वेहलिका (कुहण) कुहन (कंदुक्के) कन्दुक्य (एए) ये (अगंतजीवा) अनन्त जीयों वाले (कंदुक्के) कन्दुक्य में (होइ) है (भयणा) विकल्प (तु) तो॥२२॥
टीकार्थ-'जिस मूल को तोडने पर समान मंग दिखाई दे' इत्यादि जो पहले कहा गया है, उसका स्पष्ट रूप से प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं
जिस मूल, कन्द, स्कंध, त्वचा, शाखा, पत्र और पुष्प आदि के तोडे जाने पर मंगस्थान चक्र के आकोर का, एकदम सम होता है, वह मूल कन्द आदि अनन्तजीव होते हैं, ऐसा समझना चाहिए।
जिस मूल, कन्द, स्कंध, छाल, शाखा, पत्र और पुष्प आदि के तोडे जाने पर पर्व-गांठ या भंगस्थान रज से व्याप्त होता है, अथवा जिस पत्र आदि को तोडने पर चक्र के आकार का मंग नहीं दिखता
(सप्काए) स.४ाय (सज्झाए) सध्याय (उज्वेलिया य) मने वेसिड (कुहण) सुन (कंदुक्के) न्हुॐ (एए) २(अणतजीवा) मनन्त वाण (कंदुक्के) इन्दुश्यमा (होइ) छ (भयणा विकल्प) १८५ (हु) निश्चय ॥ सू. २२ ॥
ટીકાથ–જે મૂળને તેડવાથી સમાન ભંગ દેખાય, વિગેરે જે પહેલા કહેલું છે. તેનું સ્પષ્ટરૂપે પ્રતિપાદન કરવાને માટે કહે છે
२ भूग, ४४, ॐन्ध, स्वया, शमा, ५७ मने पु.५ २६ ताथी ભંગ ચકના આકારે એકદમ સમ હોય છે તે મૂળ કન્દ આદિ અનન્ત જીવ હોય છે એમ સમજવું જોઈએ.
જે મૂળ, સ્કન્ય, છાલ, શાખા, પત્ર અને પુષ્પ આદિને તેડવાથી પર્વ ગાંઠ એટલે ભંગસ્થાન રજથી ભરેલ બને છે, અથવા જે પત્ર આદિને તેડવાથી ચકઆકારને ભંગ નથી દેખાતો અને જેનું ભંગ સ્થાન રજથી વ્યાપ્ત પણ
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧