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________________ प्रमेयबोधिनी टीका प्र. पद १ सू.२१ साधारणशरीरवनस्पतिकायिकाः ३११ त्वक् 'अणंतजीवा उ'-अनन्तजीवा तु अनन्ताः जीवा यस्यां सा तथाविधा ज्ञातव्या, 'जे यावन्ने तहाविहा' या अपि चान्या अधिकृतया अनन्त जीवात्मकत्वेन निश्चितया मूलछल्ल्या समानरूपा छल्ली भवति साऽपि तथाविधा-तथाप्रकारा अनन्त जीवात्मिका अवसेया, 'जरस कंदस्स कट्ठाओ, छल्ली बहलतरी मचे अणंतजीवा उ सा छल्ली, जे यावन्ने तहाविहा' ॥७३॥ 'जस्स' यस्य 'कंदस्स' कन्दस्य 'कट्ठाओ'-काष्ठात्-मध्यवर्तिसारात् छल्ली'-वल्कलरूपा त्व 'बहुलतरी भवे'-बहुलतरा-अधिकतरा भवेत् ‘सा छल्ली' सा कन्द वल्कलरूपा त्वक 'अणंतजीवा उ'-अनन्तजीवा तु ज्ञातव्या, 'जे यावन्ने तहाविहा'-याऽपि चान्या प्रस्तुतया अनन्त जीवत्वेन निश्चितया कन्दछल्या समानरूपा छल्ली भवति साऽपि तथाविधा-अनन्तजीवात्मिका ज्ञातव्या, 'जस्स खंधस्स कट्ठाओ, छल्ली बहलतरी भवे । अणंत जीवा उ सा छल्ली, जे यावन्ना तहाविहा ।।७४।। 'जस्स'-यस्य 'खंधास'-स्कन्धस्य 'कट्ठाओ' काष्ठात्-मध्यवर्तिसारात् 'छल्ली' वल्कलरूपा त्वक् 'बहलतरी भवे'-बहुलतरा भवेत्, 'सा छल्ली'-सा वल्कलरूपा स्कन्ध त्वक, 'अणंतजीवाउ'-अनन्तजीवा तु ज्ञातव्या, 'जे यावना तहाविहा'या अपि चान्या अधिकृतया अनन्तजीवत्वेन निश्चितया स्कन्धच्छल्या समानरूपा छल्ली भवति साऽपि तथाविधा-अनन्तजीवात्मिका ज्ञातव्या, 'जीसे सालाए कट्ठाओ छल्ली बहुलतरी भवे । अणंतजीवाउ सा छल्ली, जे यावन्ना तहाविहा' ॥७५॥ 'जीसे' यस्याः, 'सालाए'-शाखायाः, 'कट्ठाओ'-काष्ठात्-मध्यवर्तिसारात् यह जो छाल अनन्त जीव रूप से निश्चित है, इसी के समान जो भी अन्य छाल हो, उसे भी अनन्त जीव समझना चाहिए। जिस कन्द के काष्ठ अर्थात् मध्यवर्ती सारभाग की अपेक्षा छाल अधिक मोटी हो, उस छाल को अनन्त जीय समझना चाहिए। अन्य जो भी छाल इस छाल के समान हो उसे भी अनन्त जीव जानना चाहिए। जिस स्कंध के काष्ठ अर्थात् अन्दर के सारभाग की अपेक्षा छाल अधिक मोटी हो, उस छाल को अनन्त जीव समझना चाहिए। अन्य જીવ રૂપે નિશ્ચિત છે. તેના સરખી જે બીજી છાલ હોય તેને પણ અનન્ત જીવ સમજવી જોઈએ. જે કંદના કાષ્ઠ અર્થાત્ મધ્યવતી સાર ભાગની અપેક્ષાએ છાલ અધિક મોટી હોય તે છાલને અનન્ત જીવ સમજવી જોઈએ. બીજી જે કોઈ છાલ આ છાલની જેમજ હોય તેને પણ અનન્ત જીવ સમજવી જોઈએ. જે સ્કંધનું કાષ્ઠ અર્થાત્ અન્દરના સાર ભાગની અપેક્ષાએ છાલ અધિક મેટી હોય છે તે છાલને અનન્ત જીવ સમજવી જોઈએ. અન્ય જે છાલ આવી શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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