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________________ २३० प्रज्ञापनासूत्रे अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्काविकाश्च । ते एते सूक्ष्मतेजस्कायिकाः । अथ के ते वादरतेजस्कायिकाः ? बादरतेजस्कायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा अङ्गारः १ ज्याला २ मुर्मुरः ३ अर्चिः ४ अलातम् ५ शुद्धाग्निः ६ उल्का ७ विद्युत् ८ अशनिः ९ निर्घातः १० सङ्घर्ष समुत्थितः ११ सूर्यकान्तमणिनिश्रितः १२ ये चान्ये तथा प्रकारास्ते समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - पर्याप्तकाश्च अपर्याप्तकाथ । तत्र खल ये ते अपर्याप्तास्ते खलु असंप्राप्ताः । तत्र खलु ये ते पर्याप्तकाः, एतेचं जीव कितने प्रकार के कहे हैं ? (सुकुमतेउकइया) सूक्ष्म तेजस्कायिक ( दुविहा) दो प्रकार के (पन्नत्ता) कहे हैं (तं जहा ) वे इस प्रकार ( पज्ज - त्तगहुमते उकाइया य) पर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक और (अपज्जत्तगसुहुमते उकाइया) अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिक | (से किं तं बायर उकाइया) । बादर तेजस्कायिक कितने प्रकार के हैं ? (अणेगविहा) अनेक प्रकार के (पन्नत्ता) कहे हैं (तं जहा ) वे इस प्रकार (इंगाले) अंगार (जाला) ज्यावा ( मुम्मुरे) मुर्मुर (अच्ची) लपट (अलाए) अलात अधजली लकडी (सुद्धागणी) शुद्ध अग्नि (उक्का) उल्का (विज्जू) विजली ( असणी) अशनि (णिग्घा ए) वैक्रिय का अशनिपात (संघरिससमुट्ठिए) रगड से उत्पन्न अग्नि (सरकतमणिणिस्सिए) सूर्यकान्तमणि से निकली अग्नि (जे याघन्ने तहष्यागारा) अन्य जो इसी प्रकार की अग्नि है (ते) वह (समासओ) संक्षेप से ( दुविहा) दो प्रकार की (पण्णत्ता) कही है (तं जहा) वह इस प्रकार है (पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य) पर्याप्त और अपर्याप्त (तत्थ णं) उनमें sell d? (gehàcmET1) 48H Àrzkilus (gfagt) & U81241 (900171) Kal. छे (तं जहा) तेथे या अरे छे (पज्जत्तगसुहुम तेजकाइया य) पर्याप्त सूक्ष्म तेरा भने ( अपज्जत्तगसुहुम तेउकाइया य) अपर्याप्त सूक्ष्म तेन्स्थायि (से किं तं बायरत उकाइया) माहरतेनस्सासि डेंटला अारना छे ? (बायरतेउकाइया) माह२ तेन्स्थायि (अणेगविहा) मने प्रारना (पण्णत्ता) ह्या छे (तं जहा) ते या प्रारे (इंगाले) अंगार (जाला) नयाणा ( मुम्मुरे) भुर्भु२ (अच्ची) अर्थी (अलाए) असात-गडधु जजेसु बाउडु (सुद्धागणि) शुद्ध अग्नि (उक्का) Casi (fase) Carvil (ererfor) wula (forary) âßuâ multua (÷æfte समुट्ठिए) धसपाथी उत्पन्न अग्नि ( सूरकंतमणिणिस्सिए) सूर्य अन्त भशिथी निश्णेस अग्नि (जे यावन्ने तहप्पगारा) मील ने रयावा પ્રકારના અગ્નિ છે. (ते समासओ) ते संक्षेपथी ( दुविहा ) मे अारना (पण्णत्ता) उडेस छे (तं जहा ) ते मा अरे छे (पज्जत्तगाय अपज्जत्तगाय) पर्याप्त भने अपर्याप्त (तत्थण) શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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