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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.१०२ क्षीरोदादिद्वीपसमुद्रनिरूपणम् ८२७ सरसव-सुविबद्धकोरेंटदाम पिडिततरस्स निद्धगुणतेयदीविय निरुवहय विसिद्धसुंदरतरस्स-सुजायदहिमहिय तदिवसगहिय नवणीय पड्डवणाविय सुक्कड्रिय उद्दाबसज्जवीसंदियस्स अहियं पीवरसुरहिगंधमणहरमहुरपरिणाम दरिसणिज्जस्स पत्थनिम्मलसुहोवभोगस्स सरयकालम्मि होज-गोघयवरस्स मंडए' गौतम ! घृतोदसमुद्रोदकम्-स यथा नाम प्रफुल्ल-पुलकित शल्लकी विमुत्कलकर्णिकारसर्षप सुविबुद्धकोरण्ट दामपिण्डिततरस्य स्निग्धगुणतेजोद्दीप्तस्य-स्निग्धस्य तेजसाऽग्निसंयोगेन दीप्तस्य, निरुपहतविशिष्ट सुन्दरतरस्य सुजातदधिमथने सुजातस्य-गतवासरे निर्मितस्य दन्नोमथने तदिवसगृहीत नवनीत पटुसे जहा नाम० पफुल्लसल्लइ विमुक्तकण्णियारसरसवसुविबद्धकोरेंट दामपिंडिततरस्स णिद्धगुणतेय दीविय निरूवहय विसिट्ठसुंदरतरस्स -सुजाय दहिमाहिय तदिवसगहिय नवणीय पडवणाविय सुक्कड़िय उद्दासज्जवीसंदियस्स अहियं पीवरसुरहि गंधमणहर महुर परिणाम दरिसणिज्जस्स पीयणिम्मल सुहोवभोगस्स सरयकालंमि होज्जगोधन बरस्स मंडए' हे गौतम ! घृतोदक समुद्र का जल ऐसा है कि जैसा शरतकाल का गोघृत मण्ड होता है यह गोघृतमण्ड शल्लकी विमुक्त फूले हुए कनेर के पुष्प जैसा कुछ २ पीला होता है तथा सरसों के फूल जैसा तथा कोरण्ट की माला के जैसा पीतवर्ण का होता है यह मंडस्निग्धता वाला होता है यह चमक वाला होता है ऐसा यह तब बनता है कि जब अच्छी तरह से जमाये गये दधिको सुन्दर रीति से मथन किया जाता है क्योंकि मक्खन से ही घृत निकलता है दधि भी २-३ दिनका हो तो ऐसा घृत का मंड नहीं बनता है किन्तु जिस यार सरसवसुविबद्ध कोरेटदाम पिडिततरस्स णिद्धगुणतेय दीविय निरुवहयवि सिट सुंदरतरस्स-सुजाय दहिमहियतदिवसगहिय नवणीयपडुवणाविय सुक्कड्ढिय उद्दासज्जवीसंदियस्स अहियं पीवरसुरहिगंधमणहरमहुरपरिणामदरिसणिज्जस्स पत्थणिम्मलसुहावभोगस्स सरयकालंमि होज्ज गोधनवरस्स मंडए' है गौतम ! વૃદક સમુદ્રનું જલ એવું છે કે-જેવું શરદ્ કાળનું ગોવૃતમંડ હોય છે. આ ગેધૃત મંડ શલકી વિમુક્ત અને ફુલેલા કરેણના પુષ્પ જેવું કંઈક કંઈક પીળું હોય છે. તથા સરસવના ફુલ જેવુ તથા કેરંટની માળા જેવુ પીળા વર્ણનું હોય છે. આ મંડ સ્નિગ્ધતા વાળું હોય છે. તે સમચકવાલ વાળું હોય છે. એ ત્યારેજ બને કે જ્યારે સારી રીતે જમાવેલા દહીને સુંદર રીતે મંથન કરવામાં અર્થાત્ વલોવવામાં આવેલ હોય છે. કેમકે માખણથીજ ઘી બને છે. દહીં પણ ૨ બે અથવા ૩ ત્રણ દિવસનું હોય તે એવા ઘીનું મંડ બનતું જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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