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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.१०२ वरुणवरद्वीपनिरूपणम् ८१९ वर्णरसाभ्यां स्पर्शेन सुकुमालादिनोपचितं भवेत् । एवमुक्ते भगवति प्राह, गौतमः स्यात्तथा यथोक्तरीत्या साधितं भवेत् । भगवानाह-‘णो इणढे समझे' नायमथोऽर्थ ज्ञापयितुं प्रभुरलं समर्थः 'खीरोदस्स णं उदए एत्तो इट्टयराए चेव जाव आसाए णं पण्णत्ते' यत उदधेरुदक इतोऽपि मत्कथनात्परमिष्टतरं यावदास्वादेन प्रज्ञप्तम् इति। "विमल-विमलप्पभा एत्थ दो देवा महड़िया जाव परिवसंति' विमल विमलप्रभौ महद्धिको द्वौ देवावत्र यावत्पल्योपम स्थितिको परिवसतः एतयोविभुत्व सम्बन्धात् समुद्रस्या क्षीरोद इति नान भवति । सम्प्रति चन्द्रादीनां सम्बन्बन्धे चर्चा-'संखेज चंदा जाव तारा' संख्येय चन्द्रा यावत्तारकाः तथाहिविशेषरूप से स्वाद योग्य है, दीपनीय है समस्त इन्द्रिय शरीर और मन को प्रह्लादनीय है । विशिष्ट वर्ण से, रस से और सुकोमल स्प ऑदि से युक्त है इसलिये इसका नाम ऐसा कहने में आया है - अब इस पर पुनः गौतम प्रभु से ऐस पूछते हैं-'भवेएयारवे सिया' हे भदन्त ! क्षीरसमुद्र का जल चक्रवर्ती के लिये तैयार किये दूध के ही जैसा होता है क्या ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'णो इणट्टे समढे' हे गौतम यह अर्थसमर्थित नहीं है क्योंकि 'खीरोदस्स णं से उदए एत्तो इट्टयराए चेव जाव आसाएणं पण्णत्ते' क्षीरोदक का जल तो इस दुग्ध से भी इष्टतर यावत् आस्वादनीय कहा गया है 'विमलविमलप्पभा एत्थ दो देवा महिडिया जाव परिवसंति' यहां विमल और विमलप्रभ नाम के दो देव रहते हैं 'से तेणटेणं' इस कारण से इस समुद्र का नाम क्षीरोदक ऐसा कहा गया है 'संखेज्जं चंदा जाव સ્વાદ વાળો છે દીપનીય છે સમસ્ત ઈન્દ્રિયે શરીર અને મનને આનંદ આપનાર થાય છે, વિશેષ પ્રકારના વર્ણથી, રસથી અને સુકોમળ સ્પર્શ વિગેરેથી યુક્ત છે તેથી તેનું એ પ્રમાણેનું નામ કહેવામાં આવેલ છે. म समयमा शथी गौतमस्वामी प्रभुश्रीन से पूछे छे है-'भवे एयारूवे सिया' सावन् क्षीरसमुद्रनु ४६ यति माटे तैयार ४२वामां આવેલ દુધનાજ જેવું હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને ४ छे –णो इणठे समठे' हे गौतम ! 240 ५२।१२ नथी. भ'खीरोदस्स णं से उदए एत्तो इट्ठयराए चेव जाव आसाएणं पण्णत्ते' क्षीरोह समुद्रनु જળ તે આ દૂધથી પણ વધારે ઈતર યાવત્ આસ્વાદનીય કહેવામાં આવેલ छ. 'विमल विमलप्पभा एत्थ दो देवा महिढिया जाव परिवति' मडिया विभस सन विभत्स नामनामे हे। निवास ४२ छ. 'से तेणठेणं' मा १२था या समुद्रनु नाम 'क्षीराइसमुद्र के प्रमाणे पाये छे. 'संखेज्जं चंदा जाव જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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