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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.१०१ पुष्करोदसमुद्रनिरूपणम् ८०७ गुपवर्ण्य-'वरुणोदस्स णं समुदस्स उदए' वरुणोदस्य खलु समुद्रस्योदकम् 'से जहा नामए चंदप्पभाई वा' स यथा नामकः चन्द्रस्येवप्रभा आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा-सुराविशेषः इति शब्दोऽत्रोपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तियोतकः, समुच्चयार्थे वा शब्दश्च । एवमन्यत्रापि । 'मणिसिलागा इति वा-वरसीधुवरवारुणी इति वा-पत्तासवेइ वा-पुप्फासवेइ वा-चोयासवेइ वा-फलासवेइ वा-महुमेरए इति वा जाइप्पसन्नाइवा-खज्जुसारेइ वा मुदियासारेइ वा' मणिशलाकेव मणिशलाकावरंच तत्सीधु वराचासौ वारुणी च वरवारुणी-पत्रायोजनों का है 'दारंतरं च पउमवर० वणसंडे पएसा जीवा' इसके चारों द्वारों का आपस में अन्तर संख्यात हजार योजनों का है इसके चारों ओर एक पद्मवरवेदिका और पद्मवेदिका के चारों ओर एक धनषण्ड है वारुणीवर समुद्र के जो प्रदेश वरुणवरदीप को छुए हुए हैं वे प्रदेश इसी समुद्र के कहलावेगें वरुणवरद्वीप के नहीं यहां से जीव मरकर यहां पर भी उत्पन्न हो जाते हैं और आगे अन्यत्र और भी स्थान में उत्पन्न हो जाते हैं-ऐसा कोई नियम नही है कि यहां के मरे हुए जीव यहीं पर उत्पन्न हों। हे भदन्त इसका वारुणीवर समुद्र ऐसा नाम किस कारण से हुआ है ? 'गोयमा ! वारुणोदस्स णं समुदस्स उदए से जहा नामए चंदप्पभाइ वा मणिसिलागाइ वा वरसीधुवरवारुणीइ वा' हे गौतम ! वरुणोदसमुद्र का जल जैसी लोक प्रसिद्ध चन्द्रप्रभा नामकी सुरा होती है मणिशलाका के जैसी मणिशला नामकी सुरा होती है जैसी वरवारुणी होती हैं पन्त्रासव होता है (१७४ अने परिक्ष५ सयात २ योनी छे. 'दारंतर च पउमवर० वणसंडे पएसा जीवा' तेना यारे दोशनु ५२२५२नुमत२ सध्यात २ योनिनु છે. તેની ચારે બાજુ એક પદ્વવર વેદિકા અને પદ્મવર વેદિકાની ચારે તરફ એક વનખંડ છે. વારૂણવર સમુદ્રના જે પ્રદેશે વર્ણવર દ્વીપને સ્પશેલા છે, તે પ્રદેશ વારૂણવર સમુદ્રનાજ કહેવાશે. વરૂણવર દ્વીપના કહેવાશે નહીં અહીંથી જીવ મરીને–અહીના જીવો મરીને આ દ્વીપમાં પણ ઉત્પન્ન થાય છે અને અન્યત્ર પણ ઉત્પન્ન થાય છે. એ કેઈ નિયમથી કે અહીયાં મરેલા છે અહીંજ ઉત્પન્ન થાય બીજે ઉત્પન્ન ન થઈ શકે કે-હે ભગવન આ સમુદ્રનું नाम ॥३ी१२ समुद्र से प्रमाणे ॥ ४॥२४थी वामां आवेस छ ? 'गोयमा ! वारुणोदस्स णं समुदस्स उदए से जहा नामए चंदप्पभाइवा मणिसीलागाइवा वर सीधुवर वारुणीइवा' हे गौतम ! १३।४ समुद्रनु ४८४ प्रसिद्ध यंद्रप्रमा નામની સુરા જેવી હોય છે, મણિ શલાકાના જેવી મણિશલાકા નામની સુરા જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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