SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू. ५५ जंबूद्वीपद्वारसंख्यादि निरूपणम् ५७ 'सव्वओ समंता' सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्तात्-सर्वासु विदिक्षु 'आपूरेमाणीओ आपूरेमाणीओ' आपूरयन्त्य आपूरयन्त्यः-गन्धव्याप्तिं कुर्वन्त्यः, अतएव 'अतीव अतीव सिरीए जाव चिट्ठति' अतीवातीव-अतिशयया श्रिया-गन्धशोभारूपया यावदुपशोभमाना उपशोभमाना स्तिष्ठन्तीति ॥ 'विजयस्स णं दारस्स' विजयस्य खलु द्वारस्य 'उभयओ पासिं' उभयोः पार्श्वयोः 'दुहओ णिसीहियाए' द्विधातोद्विप्रकारायां नषेधिक्याम् 'दो दो सालभंजिया पडिवाडीओ पन्नत्ताओ' द्वे द्वे शालभज्जिका परिपाट यौ प्रज्ञप्ते-कथिते 'ताओ णं सालभंजियाओ' ताः खलु शालभञ्जिका:-लधुपुत्तलिकाः, 'लीलट्ठियाओ' लीलास्थिताः लीलया-ललिताशनिवेशरूपया स्थिता इति लीलास्थिताः, 'सुपइट्ठियाओ' सुप्रतिष्ठिताः, सुसुष्ठु मनोज्ञतया प्रकर्षेण स्थिता इति, 'सुअलंकियाओ' स्वलंकृताः, सु-सुष्ठु अतिशयेन रमणीयतया अलंकृता इति, 'णाणाविहरागवसणाओ' नानाविधरागउदार-स्फार-मनोज्ञ गंध से नासिका और मन को शान्ति प्रदान करते रहते हैं और चारों दिशाओं में उन२ प्रदेशों को-भूभागों कोएवं विदिशाओं के प्रदेशों को गन्ध की व्याप्ति से भरते रहते हैं। इसलिये ये अपनी शोभा की गरिमा से बहुत अधिक सुहावने लगते हैं। 'विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं' विजयद्वार की दोनों ओर की नैषेधिकी में-वैठक शाला में-'दो दो सालभंजिया पडिवाडीओ पन्नताओ' दो दो शालभञ्जिकाओं-छोटी२ पुत्तलिकाओं की परिपाटी कतार कहीं गई हैं 'ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्ठियाओ' वहां ये पुत्तलिकाएं क्रीडारत हुई चित्रित की गई हैं 'सुपइडियाओ' और ये बडे ही सुन्दर ढंग से वहां प्रकट की गई है । तथा 'सुअलंकियाओ' वेषभूषा से सुसज्जित की गई हैं 'जाणाविहरागवसणाओ' रंगविरंगे कपडों से આપવાવાળા એવા ગંધથી નાક અને મનને આનંદ ઉપજાવે છે. અને ચારે દિશાઓના એ એ પ્રદેશને ભૂમિભાગને અને દિશા વિદિશાઓના પ્રદેશને ગંધની વ્યાપકતાથી ભરતા રહે છે. એથી જ એ પિતાની શેભાની ગરિમાથી घा पधारे सोडामा दागे छ. 'विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं' विलय द्वारनी भन्ने मानुनी नैषधीमा ४४ मा 'दो दो सालभंजिया परिवाडीओ पण्णत्ताओ' मे मे समा नानी नानी पुतजियोनी डा। उस छ. 'ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्रियाओ' त्यां ते पुतजियो डी४२ती यातना छ. 'सुपइट्रियाओ' भने ते घरी सु२ प्र४२थी त्या मतावस छ. तथा 'सुअलोकयाओं' वेष मने भूषणेथी सारी रीते सोयी छे. 'णाणाविह राग વસામો' રંગ વિરંગ કપડાઓથી તેને ઘણીજ સરસ રીતે સજાવવામાં मी. જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy