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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू. ९२ लवणसमुद्रस्योद्वेधपरिवृद्धिनिरूपणम् ६५३ टीका- 'लवणे णं भंते! समुद्दे केवइयं उब्वेहपरिवुद्धीए पण्णत्ते' लवणः समुद्रः खलु कियान् कियन्ति योजनानि यावत् उद्वेधपरिवृद्धया प्रज्ञप्तः, अर्थात् - जम्बूद्वीपवेदिकान्तालवणसमुद्रवेदिकान्ताचारभ्य उभयतोऽपि लवणसमुद्रस्य कियन्ति योजनानि यावद् मात्रया २ उद्वेधपरिवृद्धि:, इति प्रश्ने भगवानाह - 'गोयमा ! लवणस्स णं समुद्दस्स उभओ पासिं पंचाणउइ २ परसे गंता पएसउब्वेहपरिवुडीए पण्णत्ते' गौतम ! लवणसमुद्रस्य खलु तस्य वेदिकान्तात् जंबूद्वीप वेदिकान्ताच्चोभयोः पार्श्वयोः पञ्चनवतिं २ प्रदेशान् गत्वा तत्र यः प्रदेशः सः उद्वेधपरिवृद्धया त्रसरेण्वादिरूपः प्रज्ञप्तः । ' पंचाणउइ २ वालग्गाई टीकार्थ- गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'लवणे णं भंते ! समुद्दे hasi उच्वेह परिवुडीए पण्णत्ते' हे भदन्त ! लवणसमुद्र उद्वेध की परिवृद्धि से कितने योजन का कहा गया है ? अर्थात् जम्बूद्वीप की वेदिका के अन्त से और लवणसमुद्र की वेदिका के अन्त से लेकर लवणसमुद्र की दोनों ओर कितने योजन तक उद्वेध की गहराई की - वृद्धि होती कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउति २ पदेसे गंता पदेसं उच्वेह परिबुट्टीए पण्णत्ते' हे गौतम! लवणसमुद्र की दोनों ओर ९५ - ९५ प्रदेश जाकर के - अर्थात् जम्बूद्वीप के वेदिकान्त से और लवणसमुद्र के वेदिकान्त से लवणसमुद्र की दोनों बाजू के ९५ - ९५ प्रदेशरूप स्थान पर जाने पर जो वहां एक प्रदेशरूप स्थान आता है वह उद्वेध परिवृद्धि की अपेक्षा त्रसरेणु आदि रूप कहा गया है० 'पंचाणउति २ टी अर्थ - गौतमस्वामी प्रभुश्रीने मे पूछे 'लवणेणं भंते ! समुदे केवइयं उब्वेहपरिवुड्ढीए पण्णत्ते' हे भगवन् ! सवसमुद्र उद्वेधनी परिवृद्धिधी કેટલા યેાજનને કહેવામાં આવેલ છે? અર્થાત્ જ બુદ્વીપની વૈશ્વિકાના અંતભાગ થી લઇને તથા લવણુ સમુદ્રની વેદિકાના અંતભાગ સુધી લવણસમુદ્રની બન્ને બાજુ કેટલા ચેાજનની ઉદ્વેધની ઉંડાઈ છે. અર્થાત્ ભરતી થતી કહેવામાં આવેલ छे? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री छेडे - 'गोयमा ! लवणस्स णं समुद्दस्स उभओ पासि पंचाणउति पंचाणउति पदेसं गंता पदेसं उब्वेहपरिवुड्ढीए पण्णत्ते' हे गौतम! सव समुद्रनी मन्ने तर ८५ पंचाय पंचा પ્રદેશ જવાથી અર્થાત્ જ ખૂદ્રીપના વૈશ્વિકાન્તથી અને લવણુસમુદ્રના વેદિકાન્તથી બન્ને બાજુએ ૯૫ ૫ંચાણું ૯૫ પંચાણું પ્રદેશ રૂપ સ્થાન પર જવાથી ત્યાં એક પ્રદેશ રૂપ જે સ્થાન આવે છે. તે ઉદ્વેષ અને પરિવૃદ્ધિની अपेक्षाखे त्रस रेशु विगेरे ३५ हेवामां आवे छे. 'पंचाणउति पंचाणउति જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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