SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 659
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवाभिगमसूत्रे द्वीपानां पूर्वदिशि स्वयम्भूरमणं समुद्रम् असंख्येयानि योजनसहस्राणि अवगाह्य अत्रान्तरे वर्तन्ते, अत्र खलु स्वयम्भूरमण यावत् सूर्या देवाः सन्ति । 'अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधराइ वा नागरायाइ वा खन्नाइ वा अग्धाइ वा सीहाइ वा विजाई वा हासवट्टीइ वा' हे भदन्त ! लवणसमुद्रे वेलन्धराः वेलया धारका इति वा नागराजाः इति वा खन्ना इति वा अग्घा इति वा विजाई इति वा ? विशिष्टाः मत्स्य-कच्छपादयः किं सन्ति इति प्रश्नः ? भगवानाह-'गोयमा ! हंता अत्थि' हन्त ! गौतम ! सन्ति । 'जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे अत्थि वेलंधराइ वा नागराया अग्घा सीहा विजायाई वा हासवट्टीइ वा, तहा णं बाहिरएसु वि समुद्देसु' यथा खलु भदन्त ! लवणे इमे जीवास्तथा बाह्य समुद्रेष्वपि तत्तन्नामानः सन्तीति स्थान में स्वयंभूरमण समुद्रगत सूर्यो के सूर्यद्वीप हैं और राजधानियाँ इनकी अपने अपने द्वीपों की पूर्वदिशा की ओर स्वयंभूरमण समुद्र में असंख्यात हजार योजन आगे जाने पर हैं। __'अत्थिणं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधराति वा नागरायाइवा खन्नातिवा अग्धाति वा सिंहाति वा विजाती वा हासवट्टीति वा ?' हे भदन्त ! लवणसमुद्र में वेलन्धर हैं क्या ? नागराज है क्या ? खन्ना है क्या ? अग्धा है क्या ? सीहा है क्या ? विजाती हैं क्या? जल का हास और उसकी वृद्धि है क्या ? अग्धा खन्ना आदि मत्स्य एवं कच्छप विशेष हैं चूर्णिकार ने ऐसा कहा है-'अग्धा खन्ना सीहा विजाई इति मच्छकच्छभा' इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता अत्थि' हां गौतम ! ये सब वहां हैं 'जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे अस्थि वेलंधरा इवा जागरायाति वा अग्धासिहाति वा, विजातीति वा हासवडीति वा' हे भदन्त ! जिस प्रकार से लवणसमुद्र में वेलन्धर हैं, नागराय हैं, દ્વીપની પૂર્વ દિશાની તરફ સ્વયંભૂરમણ સમુદ્રમાં અસંખ્યાત હજાર જન આગળ જવાથી આવે છે. __ 'अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधरातिव। नागरायाइवा खन्नाति वा अग्धातिवा सीहातिवा विजातिवा हासवाट्टीतिवा' भगवन् ससमुद्रमा सध२ छ ? नाग छ ? मन छ? भाछ ? सीइ छ ? वितति छ ? अश्यामन्ना વિગેરે મત્સ્ય વિશેષ તથા કચ્છપ વિશેષના નામે છે. ચૂર્ણિકારે એજ પ્રમાણે ह्य -'अग्धा, खन्ना सीहा विजाई इति मच्छ कच्छमा' मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'हंता अत्थि' है। गौतम ! समधा त्यां छ. 'जहाणं भंते ! लवणसमुदे अस्थि वेलंधराइवा णागरायातिवा अग्धा सीहातिवा विजातीतिवा हासवादीतिवा' भगवन् प्रमाणे सण समुद्रमा २ छ, न छ, माया छ, सीहा छ, विति छ. सनास मने वृद्धि छ. 'तहा गं જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy