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________________ ५२ जीवाभिगमसूत्रे परिपाटयौ प्रज्ञप्ते, 'ते णं णागदंतगा' ते खलु नागदन्तकाः 'मुत्ताजालंतरुसियहेमजालगवक्खजालखिखिणी धंटाजालपरिक्खित्ता' मुक्ताजालानामन्तरेषु यानि उत्सृतानि-लम्वमानानि हेमजालानि-सुवर्णमयदामसमूहाः यानि च गवाक्षजालानि-गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहाः यानि च किंकिणी क्षुद्रधण्टिका किङ्किणी जालानि-क्षुद्रधण्टासमुदायाः एभिः परिक्षिप्ताः-सर्वतो व्याप्ता इति, 'अब्भुग्गया' अभ्युद्गताः 'अभि-अभिमुखम् उद्गता अग्रिमभागे मनाग उन्नता इत्यभ्युद्गताः 'अभिणिसिट्ठा' अभिनिसृष्टाः अभि-अभिमुखम् बहिर्भागाभिमुखं निसृष्टा इत्यभिनिसृष्टाः 'तिरियं सुसंपगहिया' तिर्यग् सुसंप्रगृहीताः, तिर्यभित्ति प्रदेशे सु-सुष्टु-अतिशयेन सम्यग् मनागपि अचलनेन प्रगृहीता इति सुसंप्रगृहीताः, 'अहे पण्णगद्धरूवा' अधः- अधोभागे पन्नगार्द्धरूपाः पन्नगाई वदतिसरला दीर्धाश्चेति भावः, एतदेव विवृणोति 'पण्णगद्धसंठाणसंठिया' पन्नगार्द्ध संस्थानसंस्थिताः अधः पन्नगाधसंस्थानसंस्थिताः 'सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा' तरफ दोनों निषेधिकाओं में दो दो नागदन्तकों-खूटियां की परिपाटी है 'तेणं णागदंतगा मुत्ताजालंतरुसित हेमजालगवक्खजालखिखिणीधंटाजालपरिक्खित्ता' ये सब नागदन्तक मुक्ताजालों के अन्तर में भीतर में लटकती हुई सुवर्णमयमालाओं से और छोटीर धण्टिकाओं से चारों ओर से घिरे हुए हैं। 'अभुग्गया' आगे के भाग में ये नागदन्तक कुछ२ ऊंचाई को लिये हुए हैं। 'अभिणिसिठ्ठा' अभिनिसृष्ट हैं-अर्थात् निषेधिकाओं की भीत में ये खूब गहरे रूप में ठुके हुए हैं। 'तिरियं सुसंपगहिया' यही बात इस पद द्वारा प्रकट की गई है । 'अहे पण्णगद्धरूवा' अधोभाग में ये सर्प के अर्धभाग जैसे आकारवाले हैं-अर्थात् अतिसरल और दीर्घ है । 'पन्नगद्धसंठाणसंठिया' इस पद द्वारा स्पष्ट की गई है। 'सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा' इन પડખામાં એટલે કે બન્ને બાજુની બને નિષેધિકાઓમાં બબ્બે નાગદંત–મૂટિયો ५.हित ३५ वामां आवे छे. तेण णागदंतगा मुत्ताजालंतररुसिय हेमजाल गवक्खजालखिखिणी घंटाजालपरिक्खित्ता' मा ची नात भुतine ખંટિયાની પંક્તિની અંદર ભાગ લટકતી સોનાની માળાઓ અને નાની नानी घटयोथी यारे माथी धेशये छे. 'अब्भुग्गया' माना नामां से नगढन्त-भुटिये। ४४४४४४ या वाणी छे. 'अभिणिसिद्धा' समिनिहित मर्थात निषेधिमानी नीतभा से भूम 3 सुधी असारे छ. 'तिरिय सुसंपगहिया' से वात २५४ द्वारा प्रगट ४२८ छे. 'अहे पण्णगद्धरूवा' नीयन ભાગમાં એ સાપના અર્ધભાગ જેવા આકારવાળી છે. અર્થાત્ અત્યંત સરલ भने हा छ, 'पन्नगद्धसंठाणसंठिया' २॥ ५४ ॥२॥ ५६ मे पात २५५८ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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