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________________ ५७४ जीवाभिगमसूत्रे महनयोः स्रोतांसि जल प्रवाहा स्तत्रगतानि भवन्ति तस्माच्च तेन प्रतिहतानि प्रतिनिवर्तन्ते ततोदकसीमाकारित्वात् 'उदकसीम' इति कथ्यते उदकस्य सीमाशीताशीतोदाजलस्य सीमा यत्रेति व्युत्पत्तेः 'से तेणटेणं जाव णिच्चे' तत्तेनार्थेन गौतम ? एव मुच्यते दकसीम आवासपर्वतः अथोत्तरं च-गौतम ! दकसीम इति शाश्वतं नामधेयम् यस्मान्न कदाचिन्नासीत्-न भवति-न भविष्यति किन्तुआसी दस्ति भविष्यत्येव ध्रुवो नियतोऽव्ययो यावन्नित्य इति । अपि च 'मणोसिलए एत्थदेवे महड्रिए जाव' मनश्शिलकोऽत्रदेवो महर्द्धिको यावन्महानुभागः प्रतिवसति ‘से णं तत्थ चउण्हं सामाणिय० जाव विहरइ' स खलु तत्र चतुः होते हैं अतः जल की सीमा का यह कर्त्ता है इसलिये इस का नाम दकसीम आवास पर्वत ऐसा हो गया है 'से तेणटेणं' इसी कारण हमने भी इसका नाम ऐसा ही कहा है अथवा-हे गौतम ! इस दकसीम नाम इसका अनादि निधन है यह पहिले नहीं था ऐसा भी नहीं है अब भी नहीं है ऐसा भी नहीं है और आगे यह नहीं रहेगा ऐसा भी नहीं है यह तो त्रिकाल स्थायी है अतः इस प्रकार के नाम करण में कोई निमित्त भी नहीं है अतः यह ध्रुव नियत अव्यय यावत् नित्य है अपिच-'मणोसिलए एत्थ देवे महडिए जाव' इस पर्वत पर महर्द्धिक आदि विशेषणों वाला मनः शिलक नामका देव रहता है 'से णं तत्थ चउण्हं सामाणिय जाव विहरइ' यह देव वहां रहता हुआ चार हजार सामानिक देवों का, चार अग्रमहिषियों का, सात अनीकों का, सात अनिकाधिपतियों का 'एवं १६ हजार आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य રહે છે. તેથી જલની સીમાને તે કર્તા છે, તેથી તેનું નામ દંગસીમ આવાસ पर्वत से प्रमाणे थयेस छ. 'से तेणटेणं' २मा २४थी में ॥ ५वतर्नु नाम દાસીમ પર્વત કહ્યું છે. અથવા હે ગૌતમ ! આ દકસીમ એ નામ અનાદિ કાળભાવી છે. તે પહેલાં ન હતું તેમ નથી, વર્તમાનમાં નથી તેમ પણ નથી, અને ભવિષ્યમાં એ નહી રહે તેમ પણ નથી. એને ત્રિકાલથાયી છે. તેથી આ રીતનું નામ કરવામાં કંઈ નિમિત્ત પણ નથી જ તેથી એ સ્થાયી ध्रुव नियत, अव्यय, यावत् नित्य छ. तथा 'मणोसिलए देवे महढिए जाव, આ પર્વત પર મહદ્ધિક વિગેરે વિશેષણ વાળા મનઃશિલક નામના દેવ રહે छ. 'से णं तत्थ चउण्हं सामाणिय जाव विहरई' से हेव त्यां रहेता ५४ यार હજાર સામાનિક દેવેનું, ચાર હજાર અગ્રમહિષિયોનું, સાત અનીકેનું, સાત અનીકાધિપતિનું તેમજ ૧૬ સેળ હજાર આત્મરક્ષક દેવેનું અધિપતિપણ વિગેરે કરતા થકા પિતાના સમયને સુખપૂર્વક વીતાવે છે. જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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