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________________ ४३२ जीवाभिगमसूत्रे नाऽन्तराऽवगाहनेन 'सेया वरकनगथूभियागा जाव वणमालाउत्ति' श्वेतानि वरकनकस्तूपिकाकानि ईहामृगषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिनररुरुसरभचमर कुञ्जरवनलता पद्मलता भक्तिचित्राणि स्तम्भगतवज्रवेदिकायुक्तानि अतोऽभिरामाणि विद्याधरयमलयुगल यन्त्र युक्तानिवार्चिः सहस्रमालनीयानि रूपकसहस्रकलितानि दीप्यमानानि देदीप्यमानानि चक्षुलो कितले शानि शुभस्पर्शानि यावत्प्रतिरूपाणि इत्यादि क्रमेण द्वाराणां वर्णन विजयद्वारवत् । 'तस्सणं भवणस्स' तस्य खलु भवनस्य 'अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पन्नत्ते'-अन्तर्मध्ये बहुसमरमणीयोऽतिरम्यो भूमिभागः कथितः । 'से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा' स यथानामकः आलिङ्गपुष्करमिति वा, 'जाव मणीणं वण्णओ' यावन्मणीनां धनुष चौडे हैं 'तावतियं चेव पवेसेणं' तथा २५० धनुष ही ये प्रवेश वाले हैं। 'सेया वरकनकथूभियागा जाव वणमालाउति' ये द्वार सफेद हैं और इनकी शिखरे श्रेष्ठ सुवर्ण की बनी हुई हैं। इन द्वारों के वर्णन में 'ईहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नररुरु आदि पाठ से लेकर यावत् वनमाला तक का पाठ ग्रहण किया गया है। अतः यह वर्णन विजय द्वार के वर्णन जैसा समझना चाहिये इन द्वारों के वर्णन में जो यहां इहामृग आदि पाठ लिया है उसका अर्थ स्पष्ट है क्योंकि इन पदों की व्याख्या पीछे विजयद्वार के वर्णन में की जा चुकी है 'तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' इस भवन के भीतर का भूमिभाग बहुत ही अधिक सुन्दर है 'से जहानामए आलिंगपुक्खरे इवा' जैसे मृदङ्ग का मुख चिकना होता है 'जाव मणीणं वण्णओ' इस तरह 'आलिङ्ग पुक्खरेइवा' इस सूत्र पाठ से २५० २ढीस धनुषनी पडा वा छे. 'तावतियं चेव पवेसेणं' तथा २५० मढिसे धनुषना प्रवेश पाय छे. 'सेया वर कनक भूमियागा जाव वणमाल उत्ति' ये ४२वान्ता स३६ छ. अन तेना शिम श्रे सोनाना पनेता छ. साना १ नभा 'ईहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिंनर रूरू' विशेरे પાઠથી લઈને યાવત વનમાળી સુધીને પાઠ અહિંયા ગ્રહણ થયેલ છે. તેથી આ વર્ણન વિજ્ય દ્વારના વર્ણન પ્રમાણે સમજી લેવું. આ દ્વારના પણ વર્ણનમાં અહીંયા જે ઈહામૃગ વિગેને પાઠ લખ્યો છે તેનો અર્થ સ્પષ્ટ છે. કેમકે આ બધાજ પદની વ્યાખ્યા વિજય દ્વારના વર્ણનમાં આવી ગયેલ છે. 'तस्सणं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' मा मननी मरने। भूमिमा धणे पधारे सु४२ छ. 'से जहानामए आलिंगपुक्खरेइवा' म भृगना भुम मा यि हाय छे. ते xिण छ. 'जाव मणीनां वण्णओ' मा प्रमाणे જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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