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________________ २२६ जीवाभिगमसूत्रे यत्र तद् उभयतो विव्योयणम्, 'दुहओ उण्णए'-उभयत उन्नतम्, 'मझे णयगंभीरे'-मध्यभागतो नत गम्भीरं कपोलभराक्रान्तत्वात्, 'सालिंगणवट्टिए'सालिङ्गनवर्तिकम् आलिङ्गनवर्तिना शरीरप्रमाणोपधानेन सह यद्वर्तते तत् सा लिङ्गनवर्तिकम् । 'गंगापुलिण वालु उहालसालिसए'-गङ्गापुलिनवालुकाऽवदालसदृशम्, गङ्गा तटस्थवालुकाया अवदालोऽधोगमनं पादन्यासेन विदलनं तेन तुल्यं यत् यथाभवेत्तथा, । 'उवचितक्खोमदुगुल्लपट्टपडिछायणे'-उपचित क्षौमदुकुलप्रतिच्छादनम्, 'ओयवियविसिट्ठ परिकम्मियं' आविकेन कम्बलादिना विशिष्टं परिकर्मितं क्षौम-कार्पासिकं वा यदुकूलं तद् आच्छादनम्, [अधोन्यस्त कम्बलो रखें जाने वाले तकिये हैं 'से णं देव सयणिज्जे' वह देवशयनीय दोनों तरफ शिरकी ओर और पैरों की ओर उपधानवाला है। 'दूहओ उन्नए' इस तरह यह दोनों ओर तो उन्नत है । 'मज्झे णयगंभीरे' और मध्यभाग में नत और गंभीर है। 'सालिंगणवट्टिए' यह सालिङ्गन वर्तिक है । अर्थात् सोते समय जो करवट के पास तकिया लगाया जाता है उसका नाम सालिङ्गन वर्तिका हैं । 'गंगा पुलिण. वालु उद्दाल सालिसए' जिस प्रकार गंगा के तट पर रही हुई वालु पर पैर रखने से मनुष्य नीचे की ओर धसता सा प्रतीत होता हैइसी प्रकार से इस पर भी उठते बैठते नीचे की ओर कमर का भाग धस जाता है। अतः यह गंगा के पुलिन की वाल के जैसा कहा गया है । 'उवचित्तखोमदुगुल्लपट्ट पडिच्छायणे' ऊनके कम्बल से और रेशमी वस्त्र के चादर से यह ढका हआ है। 'ओयविय विसिट्ठ परिकम्मियं' अथवा उनका जिस पर काम हो रहा है 'वेलाबूटा जिस तया छ. 'से णं देवसयणिज्जे' ये देवशयनीय भन्ने बु भाथानी मा भने पानी मा ५थान पाणु छ. 'दुहओ उन्नए' २१ शते को सन्न मा तो या छ 'मज्झे णयगंभीरे' मध्य भागमा नभेस भने ली२ छ. 'सालिंगणवट्टिए' से साल नवति छ. अर्थात् सूती वमते ४२१८-५७मानी पांसे જે તકિયા રાખવામાં આવે છે, તેનું નામ સાલિંગનવતિ એ પ્રમાણે છે. 'गंगापुलिणवालुउद्दालसालिसए' म ान (ना। ५२ २३ २तनी ५२ પગ રાખવાથી મનુષ્ય નીચેની તરફ ખસતા જણાય છે. એ જ પ્રમાણે તેના પરપણ ઉઠતી બેસતી વખતે નીચેની તરફ કમરને ભાગ ખસી જાય છે. એથી साना नानी २तनी म उपामा मावेस छ. 'उवचितखोम दुगुल्लपट्टपडिच्छायणे' तेने म मने रेशमी पवनी या४२ थी ढांस छे. 'ओयविय विसिट्ठपरिकम्मियं' मथा न॥५२ वेस, भूटा, विगैरे भरे छ. सेवी જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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