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________________ १५३८ जीवाभिगमसूत्रे खेजाओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ कालओ-खेत्तो असंखेज्जा लोया' असंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतोऽसंख्येया लोकाः । 'एवं आउतेउवाउकाइए' एवमेवाऽष्कायिकाः तेजस्कायिकाः वायुकायिका जघन्योत्कर्षाभ्यां स्व स्व शरीरेण स्थितिमन्तो ज्ञेयाः। 'वणस्सइकाइएणं भते !०' वनस्पतिकायिकः खलु भदन्त !० 'गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं-उकोसेणं वणस्सइकालो' गौतम ! जघन्येनान्तमुहूर्तम्-उत्कर्षेण वनस्पतिकालः अनन्तं कालमनन्ता उत्सपिण्यवसणीओ सप्पिणीओ कालओ खेत्तओ असंखेजा लोया, एवं आउ तेउ वाउकाइए' हे गौतम ! पृथिवीकायिक पृथिवीकायिक रूप से कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और अधिक से अधिक असंख्यात काल तक रहता है इस असंख्यातकाल में असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंख्यात अवसर्पिणियां समाप्त हो जाती हैं तथा क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक समाप्त हो जाते हैं । इसी तरह अप्कायिक जीव भी अप्कायिक रूप से, तैजस्कायिक तैजस्कायिक रूप से और वायुकायिक वायुकायिक रूप से जघन्य और उत्कृष्ट रूप से रहता है। 'वणस्सइकाइए णं भंते !' वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक जीव रूप से कितने काल तक रहता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुन्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' हे गौतम ! वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक जीव रूप से कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और अधिक से अधिक वनस्पतिकाल प्रमाण अनन्त काल तक रहता है इस अनन्तकाल में असंख्यात उत्पर्पिणियां प्पिणीओ सप्पिणीओ कालओ खेत्तओ असंखेज्जा लोया एवं आउ वाउकाइए' गौतम ! પૃથ્વીકાયિક પૃથ્વીકાયિક પણાથી ઓછામાં ઓછા એક અંતર્મુહૂત પર્યન્ત રહે છે. અને વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ પર્યન્ત રહે છે. આ અસંખ્યાતકાળમાં અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને અસંખ્યાત અવસર્પિણી સમાપ્ત થઈ જાય છે. તથા ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી અસંખ્યાત લેક સમાપ્ત થઈ જાય છે. આ રીતે અખાયિક જીવ પણ અકાયિક પણાથી તેજસ્કાયિક જીવ તેજસ્કાયિક પણાથી અને वायुयि १ वायुय४५थी धन्य मने कृष्ट पाथी डोय छे. 'वणस्सइ काइएणं भते ! ' वनस्पतियि वनस्पतियाथी पय-त रहे छ ? २॥ प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ 'गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइ कालो' गौतम ! वनस्पतिय ७१ वनस्पतिय पाथी माछामा ઓછા એક અંતમુહૂત પર્યન્ત રહે છે. અને વધારેમાં વધારે વનસ્પતિકાળ પ્રમાણ અનંતકાળ પર્યન્ત રહે છે. આ અનંત કાળમાં અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણી જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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