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________________ १५२६ जीवाभिगमसूत्रे नैरयिकस्य खलु भदन्त कालतः कियच्चिरं भवत्यन्तरम् ? गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं-उक्कोसेणं वणस्सइकालो' जघन्योत्कर्षाभ्यामन्तर्मुहूर्त वनस्पतिकालश्च । 'पढमसमय तिरिक्खजोणियस्स णं भंते ! अंतरं कालओ ० ' प्रथमसमयतिर्यग्योनिकस्य खलु भदन्ताऽन्तरं कालतः ?, भगवानाह - गौतम ! ' जहन्नेणं दो खुड्डागाईं भवग्गहणाई समऊणाई' जघन्येन द्वे क्षुल्लके भवग्रहणे समयोने समयैकहीन भवद्वयग्रहणमित्यर्थः । 'उक्कोसेणं वणस्सइकालो' उत्कर्षतो वनस्पतिकालो विज्ञेयः । 'अपढमसमय तिरिक्खजोणियस्स णं भंते ! अंतरं कालओ' अप्रथम 'अपढमसमयणेरइयस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होई' हे भदन्त ! अप्रथमसमयवर्ती नैरयिक का अन्तर काल की अपेक्षा कितना होता है ? हे गौतम ! अप्रथमसमयवर्ती नैरयिक का अन्तर 'जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' जघन्य से एक अन्त मुहूर्त्त का होता है और उत्कृष्ट से वह वनस्पतिकाल प्रमाण अनन्त काल का होता है 'पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ' हे भदन्त ! प्रथम समयवर्ती तिर्यग्योनिक जीव का अन्तर काल की अपेक्षा कितना होता है ? हे गौतम ! प्रथम समयवर्ती तिर्यग्योनिक जीव का अन्तर 'जहणणेणं दो खुड्डागाईं भवग्गहणाई समऊणाई' जघन्य से एक समय कम दो क्षुद्रभव ग्रहण रूप होता है और 'उक्कोसेणं वणष्फइकालो' उत्कृष्ट से वह वनस्पतिकाल प्रमाण अनन्तकाल का होता है 'अपढमसमय तिरिक्ख जोणियस्स णं मंते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होई' हे भदन्त ! अप्रथम आजनु' होय छे ? 'अपढमसमयणेरइयस्स णं भरते ! अंतर कालओ केवच्चिर' होइ હે ભગવન્ અપ્રથમસમયવતી નૈયિકનું અંતર કાળની અપેક્ષાથી કેટલુ હોય છે ? हे गौतम! अ प्रथम सभयवर्ती नैरयिउनु तर 'जहण्णे ण ं अतोमुहुत्तं उक्कोसेण वणस्सइ कालो' ४धन्यथी तो अंतर्भुतनुं होय छे, भने उत्कृष्टथी वनस्पति आज प्रमाणु अनंतअजनु' होय छे. 'पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जं भते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ' डे लगवन् ! प्रथमसभयवर्ती तिर्यग्योनि જીવનુ અંતર કાળની અપેક્ષાથી કેટલુ હાય છે? હે ગૌતમ ! પ્રથમ સમયવતી तिर्यग्योनि लवनुमंतर 'जहणेण' दो खुड्डागाईं भवग्गहणाईं समऊणाई' धन्यथी ये सभय उभ मे क्षुद्रभव ग्रहण ३५ होय छे भने 'उक्कोसेण वणस्सइ कालो' उत्सृष्टथी ते वनस्पति डास प्रमाणु अनंतभजनु' होय छे. 'अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ' हे भगवन् ! प्रथभसमय જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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