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________________ जीवाभिगमसूत्रे तरेषु समुद्रपर्यन्तेषु चक्रेण-चतुर्विधसैन्येन वर्तितुं शीलस्य तस्य 'चित्ते' चित्रः चित्रवर्णोपेत आश्चर्यभूतो वा 'रयणकरंडे' रत्नमयः करण्डकः 'वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडे' वैडूर्यमणिस्फटिकपटलमयाच्छादनः 'साए पभाए' स्वकीयया प्रभया 'ते पएसे सव्वओ समंता' तान् समीपवर्तिप्रदेशान् सर्वतःसर्वासु दिक्षु, समन्तात्-सामस्त्येन 'ओभासइ' अवभासयति, एतवदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे-'उज्जोवेइ तावेइ पभासेई' उद्योतयति तापयति प्रभासयति 'एवामेव चित्तरयणकरंडगा पन्नत्ता' एवमेव ते चित्ररत्नकरण्डकाः प्रज्ञप्ताः कथिताः । 'वेरुलियपडलपच्चोयडा' वैडूर्यरत्नपटलमयाच्छादनाः 'साए पभाए' स्वकीयया प्रभया 'ते पएसे' तान्-प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् 'सव्वओ समंता ओभासंति' सर्वतः सर्वासु दिक्षु, समन्तात्-सामस्त्येन सर्वासु विदिक्षु अवभापिटोर चातुरन्त चक्रवर्ती पूर्व पश्चिम उत्तर और दक्षिण इन चार दिशाओं में एक छत्रराज्यवाले चक्रवती नरेशका 'रयणकरंडे'-रत्नकरण्ड-रत्नमयपिटारा कि जो 'वेरुलियमणिफलिहपडलपच्चोयडे' वैडूर्यमणि एवं स्फटिकमणि के बने हुए ढक्कनवाला होता है और 'साए पभाए' अपनी प्रभा से 'ते पएसे सव्वओ समता' जैसा वह उन उन समीपवर्ती प्रदेशों को समस्त दिशाओं में सव तरफ से 'ओभासई' प्रकाशित करता रहता हैं। 'उज्जोवेइ तावेई' पभासेइ' उद्योतित करता रहता है एवं चमकता रहता है कान्ति से युक्त करता रहता है 'एवामेव चित्तरयणकरंडगा पन्नत्ता' इसी तरह से वे चित्र रत्न करण्डक कहे गये हैं। ये चित्र रत्न करण्डक भी वैडूर्य रत्न के बने हुए ढक्कनवाले हैं और 'साए पभाए' अपनी प्रभा से 'ते पएसे' उन समीवी प्रदेशों को 'सव्वओ समंता ओभासेति' समस्तदिशाओं में और समस्तविदिशाओं में प्रकाशित करते रहते हैं पणा यति नना 'रयण करंडे' २ल्न४२७ २त्नभय ५८।२। २ वेरुलिय मणिफलिहपडलपच्चोयडे' वैडू भान भने टिमाथी मनेता ढाथी ढांस छ. भने 'साए पभाए' पोतानी प्रमाथी ते पएसे सव्वओ समंता' ते ते सभी५मा माता प्रदेशाने सघजी हिमा ५धी त२५थी 'ओभासेइ' शित ४२॥ २६ छ. 'उज्जोवेइत्ता पभासेइ' धोतित ४२ता रहे छ भने यमता २ छे. २मर्थात् ४iतिथी युत ४२त। २ छ. 'एवामेव चित्तरयणकरंडगा पण्णत्ता' से ५४२ स्थित्र २त्न ४२। उस छ. से भित्र रत्न ४२। ५५ पैडूर्यरत्नना मनेर छे ढizामावा छे. मने 'साए पभाए' पातानी प्रमाथी 'ते पएसे' से नम २२स प्रशाने 'सव्वओ समंता ओभासेंति' सघणी हिशाએને અને સઘળી વિદિશાઓને પ્રકાશિત કરતા રહે છે. ઉદ્યોતિત કરતા રહે છે. જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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