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________________ १११६ जीवाभिगमसूत्रे साओ संगय जाव पासाईयाओ जाव पडिरूवा' शृङ्गाराकारचारुवेषाः प्रासादिका दर्शनीया अभिरूपाः प्रतिरूपाः । 'तत्थ णं जाओ अवेउव्वियसरीराओ ताओ णं आभरणवसणरहियाओ पगतित्थाओ विभूसाए पन्नत्ताओ' तत्र खलु याः याः अवैक्रियशरीरास्ताः आभरणवसनरहिताः प्रकृतिस्थाः स्वभावतोऽनुद्वेलिताः विभूपया प्रज्ञप्ताः कथिताः । 'सेसेसु देवा देवीओ णत्थि जाव अच्चुओ' शेषेषु देवाः यावदच्युतः सौधर्मशानकल्पवदेव सनत्कुमारादारभ्याऽच्युतकल्पदेवपर्यन्त देवानां विभूषया वर्णन कर्तव्यम् परन्तु-सनत्कुमारादि कल्पेषु देव्यो न भवन्ति अतो देवी सूत्राणि न वक्तव्यानि अत एवोक्तं 'सेसेसु देवीओ नत्थि' शेषेषु दीप्त सूर्य के तेज से भी अधिक इनका तेज होता है शृङ्गार का ये साक्षात् मूर्तियां होती हैं वेष इनका बडा चित्ताकर्षक होता है ये प्रासादिक, दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप होती हैं । 'तत्थ णं जाओ अवेउव्विय सरीराओ ताओ' तथा जो देवियां अवैक्रियक शरीर वाली होती हैं वे 'आभरणवसणरहियाओ' आभरण वसन रहित होती हैं अर्थात् आभरणादि से अपने शरीर की शोभा नहीं बनाती हैं प्रच्युत उनके शरीर की शोभा 'पगतित्थाओ विभूसाए पण्णत्ताओ' स्वाभाविक होती है यही उनकी विभूषा है । 'सेसेलु देवा देवीओ पत्थि जाव अच्चुओ' सनत्कुमार से लेकर अच्युत स्वर्ग तक इसी तरह से देवों के दोनों प्रकार के शरीर की विभूषा का वर्णन है अर्थात् अवैक्रिय शरीर की शोभा स्वाभाविक है और वैक्रिय शरीर की शोभा आभरणादिकों द्वारा की जाती है देवियों के शारीरिक शोभा के सूत्र यहां पर नहीं कहना चाहिये क्योंकि दूसरे स्वर्ग के आगे પણ વધારે તેમનું તેજ હોય છે. તેઓ સાક્ષાત્ શૃંગારની મૂર્તિ જેવીજ હોય છે. તેમને વેષ ઘણોજ ચિત્તાકર્ષક હોય છે. તેઓ પ્રાસાદિક, દર્શનીય, अलि३५ मने प्रति३५ डाय छे. 'तत्थणं जाओ अवेउव्वियसरीराओ ताओ' तभा ? क्यिो सवैठिय शरी२जी डाय छ, ते 'आभरण वसणरहियाओ' આભૂષણ અને વસ્ત્ર વિનાની હોય છે અર્થાત્ આભરણ વિગેરેથી પિતાના શરીરની शाला यावती नथी. ५२'तु तेमना शरीरनी शमा 'पगतित्थाओ विभूसाए पण्णताओ' स्वामा४ि ४२नी राय छे. मे तेगाना आभूषण छ. 'सेसेसु देवा देवीओ णत्थि जाव अच्चुओ' सनभा२ ४८५थी ने अच्युत ४८५ सुधीन। દેવેનું વર્ણન આજ કથન પ્રમાણે બન્ને પ્રકારની વિભૂષાવાળું છે. અર્થાત્ અવૈકિય શરીરની શોભા સ્વાભાવિકી છે અને ક્રિય શરીરની શોભા આભૂષણ અલંકાર વિગેરે દ્વારા કરવામાં આવેલ હોય છે. દેવિયેના શારીરિક શેભાનું સૂત્ર-કથન જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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