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________________ १०३४ जीवाभिगमसूत्रे माइं सागरोवमाइं पंच य पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता' आभ्यन्तरिकायां पर्षदि अर्धपश्चम सागरोपम सप्त पल्योपमानि माध्यमिकायां पर्षदि पञ्चसागरोपम षद पल्योपमानि बाह्यायां पर्षदि अर्धपञ्चम सागरोपम पञ्च पल्योपमानि देवानां स्थितिरुक्ता । 'तहेव सव्वेसिं इंदाणं ठाणपयगमेणं' तथैव सनत्कुमारादिवदेवस्थानपदगमेन । सर्वेन्द्राणाम् -'विमाणाणि वुच्चा' तओ पच्छाओ परिसाओ पत्तेयं पत्तेयं वुच्चइ' विमानान्युक्त्वा ततः पश्चात् पर्षदः प्रत्येकं-२ उच्यन्ते इति । 'बंभस्सवि' ब्रह्मलोकस्याऽपि, कुत्र खलु भदन्त ! ब्रह्मलोकदेवानां विमानानि क्व नु भदन्त ! ब्रह्मलोकदेवाः परिवसन्ति ? भगवानाह-गौतम ! सनत्कुमार; माहेन्द्रकल्पोपरि सपक्ष सप्रतिदिशि बहुदूरमूर्ध्वमुत्प्लुत्य ब्रह्मलोककल्पः सर्वतोविस्तीर्णः पूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः इङ्गालराशिवर्णाभः इत्यादि पूर्ववत् । नवरमत्र माईसागरोवमाइं पंचपलिओवमाइं' बाह्यपरिषदा के देवों की स्थिति ४॥ सागरोपम की और पांच पल्योपम की है 'तहेव सव्वेसिं इंदाणं ठाण पयगमेणं' सनत्कुमार आदि की तरह स्थान पदगम से समस्त इन्द्रों के विमानों को कहकर अब सूत्रकार प्रत्येक की परिषदा के विमानों का कथन करते है-तथाच-'बंभस्स वि तओ परिसाओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! ब्रह्मलोक देवों के विमान कहां पर हैं और ब्रह्मलोक देव कहां पर रहते है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम! सनत्कुमार कल्प और माहेन्द्रकल्प के ऊपर दिशाओं में और प्रतिदिशाओं में बहुत दूर ऊंचे जाने पर आगत ठीक इसी स्थान पर ब्रह्मलोक कल्प है यह पूर्व से पश्चिम तक लम्बा और उत्तर से दक्षिण तक चौडा है प्रतिपूर्ण चंन्द्र के जैसा इसका संस्थान है सागरोवमाई पंच पलिओवमाई' मा परिहान वानी स्थिति ४॥ सा यार सागरा५म मने पाय ५च्या५मनी छ. 'तहेव सव्वेसिं इंदाणं ठाणपयगमेणं' સનકુમાર વિગેરેની જેમ સ્થાન પર ગમથી સઘળા ઈદ્રોના વિમાનનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર દરેક ઈન્દ્રોની પરિષદાના વિમાનનું કથન કરે છે. તે मा प्रमाणे-'बंभस्स वि तओ परिसाओ पण्णत्ताओ' भगवन् प्रह्मसोना દેવોના વિમાને ક્યાં આવેલા છે? અને બ્રહ્મલેકના દેવો ક્યાં નિવાસ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ ! સનકુમાર ક૯૫ અને મહેન્દ્ર કપની ઉપરની દિશાઓમાં અને પ્રતિદિશાઓમાં ઘણે દૂર સુધી ઉપર જવાથી આવતા બરોબર એજ સ્થાન પર બ્રહ્મલેક નામનું કલ્પ છે. તે ક૯૫ પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી લાંબુ અને ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી પહોળું છે. પ્રતિ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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