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प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू. ११९ शक्रादिदेवानां परिषदादिनि० १०२३ मज्झिमियाए परिसाए तहेव बाहिरियाए पुच्छा ?' हे भदन्त ! देवराज देवेन्द्रशक्रस्याऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि कति देवसहस्राणि माध्यमिकायाञ्च पर्षदि कियन्ति तथैव बाह्यायां कियन्तीति प्रश्न ? 'गोयमा सकस्स देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए चउद्दस देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए सोलस देवसाहस्सीओपन्नत्ताओ' भगवानाह-हे गौतम ! देवेन्द्र-देवराजशक्रस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि द्वादशदेवसहस्राणि, माध्यमिकायां पर्षदि चतुर्दशसहस्राणि देवानाम्, बाह्यायाश्च षोडश देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । 'तहा अभितरियाए परिसाए सत्तदेवी सयाणि, मज्झिमियाए छच्च देवी सयाणि, बाहिरियाए पंचदेवीसयाइं पन्नत्ताई तथाऽऽभ्यन्तरिकायां-मध्यमिकायां-बाह्यायाश्च पर्षदि देवीनां सप्त शतानि षट् च देवराज शक्र की आभ्यन्तर परिषदा में कितने हजार देव है ? 'मज्झिमियाए परि० तहेव बाहिरियाए पुच्छा' मध्य परिषदा में और बाह्य परिषदा में कितने हजार देव हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए बारसदेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र की आभ्यन्तर परिषदा में १२ हजार देव हैं 'मज्झिमियाए परिसाए चउद्दसदेव साहस्सीओ पण्णत्ताओ' मध्यम परिषदा में १४ हजार देव हैं । 'बाहिरियाए परिसाए सोलस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओं बाह्यपरिषदा में १६ हजार देव हैं । 'तहा अभितरियाए परिसाए सत्तदेवीसयाणि, मन्झिमियाए छच्चदेवीसयाणि बाहिरियाए पंचदेवी सयाइं पन्नताई तथा-आभ्यन्तर परिषदा में सातसौ देवियां हैं मध्यपरिषदा में ६
१२ हेवे। वामां मावेसा छ ? 'मज्झिमाए परिसाए तहेव बाहिरियाए पुच्छा' મધ્યમ પરિષદામાં અને બાહ્ય પરિષદામાં કેટલા હજાર દેવ છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री छ -'गोयमा ! सक्कस्स देवि दस्स देवरन्नो अभिंतरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' के गौतम ! हेवेन्द्र देव शनी मास्यन्त२ परिषहामा १२ मा२ १२ हेव। छ. 'मज्झिमियाए परिसाए चउद्दस देव साहस्सीओ पण्णत्ताओ' मध्यमा परिषदामा १४ यौ६ ६००२ हेवे। छे. 'बाहिरियाए परिसाए सोलस देव साहस्सीओ पण्णत्ताओ' मा प२ि५४ामा १६ सोण १२ हेवे। ४छ. 'तहा अभिंतरियाए परिसाए सत्त देवी सयाणि, मज्ज्ञिमियाए छच्च देवी सयाणि 'बाहिरियाए पंच देवी सयाइं पन्नत्ताई' तथा આભ્યન્તર પરિષદામાં સાતસે દેવિ છે. મધ્યમા પરિષદામાં છ દેવિ છે,
જીવાભિગમસૂત્ર