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________________ ६८० जीवाभिगमसूत्रे अनाभोगेन हस्तावकृष्टेभ्यः। 'सारक्खित्तार' संरक्ष्य संरक्ष्य 'संगोपित्ता' संगोप्य; 'उस्ससित्ता, निस्ससित्ता' उच्छ्वस्य निःश्वस्य-उच्छवासं कृत्वा निःश्वासं कृत्वा श्वासोच्छ्वासं गृहीत्वेत्यर्थः 'कासित्ता' कासित्वा-कासं विधाय 'छीइत्ता' क्षुत्वा क्षुत्वं विधाय 'अक्किहा' अक्लिष्टाः स्वशरीरोत्थक्लेशवर्जिताः 'अव्व हिया' अव्यथिता:-परेणाऽनापादितदुःखाः, 'अपरियाविया' अपरितापिता:स्वतः परतो वा अनुपजातकायमनः परितापाः, 'सुहं सुहेणं' सुखं सुखेन सुखपूर्वकं 'कालमासे कालं किच्चा' कालमासे-कालदिने आयुर्द लिकक्षये कालं-मरणं कृत्वा 'अन्नयरेसु देवलोएसु' अन्यतरेषु देवलोकेषु -भवनपत्यादीशानान्तदेवलोकेषु 'देवत्ताए उववत्तारो भवंति' देवत्वेन उपपत्तारो भवन्ति समुत्पद्यन्ते स्वसमानायुष्कसुरेष्वेव तदुत्पत्तिसंभवात् । अत्र कालमासे इति कथनेन तत्काल तद्देश माविमनुजानामकालमरणाभावः सूचितः, अपर्याप्तकान्तमुहूत्र्तकालान्तरमनपवत. का प्रति पालन करते है, उसे अच्छी तरह संभाल कर रखते है, 'सार. खित्ता संगोवित्ता' उसकी अच्छी तरह पालन और संभाल करके 'उस्ससित्ता, निस्ससित्ता, कासित्ता, छीईत्ता, अकिट्ठा, अवहिता, अपरियाविया' फिर वे उच्छवास निःश्वास लेकर खास कर एवं छींक लेकर विना किसी क्लेश के भीति विना तथा विना किसी परितापकें 'सुहं सुहेणं' शान्ति पूर्वक 'कालमासे कालं किच्चा' मरण के अवसर में मरकर 'अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति' भवन पत्यादिइशान देव लोक तक के किसी एक देव लोक में उत्पन्न हो जाते है। अर्थात् अपनी आयु के समान आयुवाले देवो में ही इनकी उत्पत्ति होती है। इनका अकाल में मरण नहीं होता है क्योंकि असं ख्यात वर्षायुष्क आयुवालों को अनपवर्तनीय आयुवाला सिद्धान्त में कहा गया है. यही वात प्रवट करने के लिये काल मासे' इस शब्द का 'सारखित्ता संगोवित्ता' तेनुसार रीते पालन पोषण र 'उस्सासित्ता, निस्सासित्ता कासित्ता छीईत्ता अकिट्टा अव्वहिता अपरियाविया' ते ५छी तसा ઉચ્છવાસ નિઃશ્વાસ લઈને ખુંખારો ખાઈને છીંકીને કંઈ પણ કલેશ ભોગવ્યા पिन तथा ५ गतना परिता५ विना 'सुहं सुहेणं' शान्ति । 'कालमासे काल किच्चा' सन १सरे ४७ शने 'अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति' सवनपतिथी ने शान सुधीना देवता पैकी 5 પણ એક દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અર્થાત્ પોતાના આયુષ્ય સરીખા આયુષ્યવાળા દેવલોકમાંજ તેઓની ઉત્પત્તી થાય છે. તેઓનું અકાલમરણ થતું નથી, કેમકે અસંખ્યાત વર્ષાયુષ્ક આયુષ્ય વાળાઓને અનપવર્તનીય આયુષ્યવાળા જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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