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जीवाभिगमसूत्रे इति वा, पत्राण्येव कचवरः 'असुईइ वा' अशुचिरिति वा अशुचिः श्लेष्मादिदेह मलम् 'पूइयाइ वा' पूतिकमिति वा, पूतिकं कुथितं स्व स्वभावचलितं दुर्गन्धिवस्तुजातम् 'दुभिगंधाइ वा' दुरभिगन्ध इति वा; मृतकलेवरादिजन्यमिव 'अचोक्खाइ वा' अचोक्षमिति वा-अचोक्षमपवित्रमस्थ्यादिवत् भगवानाह-'णो इणटे समढे' नायमर्थः समर्थः, यतः ववगयखाणुकंटकहीरगसक्कर तणकयवर पत्तकयवरअसुइ पूइय दुब्भिगंधमचोक्खेणं एगोरुयदीवे पण्णते समणाउसो' व्यपगत स्थाणुकण्टक हीरकशर्करा तृणकचवर पत्रकचवराशुचि पूतिक दुरभिगन्धाचोक्षः खलु एकोरुक द्वीप प्रज्ञप्तः हे श्रमणायुष्मन् ! 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे 'दसाइवा' दंश इति वा 'मसगाइ वा' मशक इति वा एतौ लोकपसिद्धौ ‘पिसुयाइ वा पिशुक इति वा 'जुयाइ वा' यूका इति वा, लघु प्रस्तरों की खण्ड रूप शर्करा होती है ? 'तण कयवराइ वा तृणों का कूडा-कचरा होता है क्या? 'पत्तकचवराइ वा' पत्तों का कूडाकचरा होता है क्या? असुइ वा' अपवित्र पदार्थ होता है क्या ? 'पूतियाति वा' पूतिक-स्वभाव से चलित दुर्गन्धी सडांश से भरा हुआ पदार्थ होता है क्या ? 'दुखिभगंधाइ वा' जिसकी गंध बूरी हो ऐसा होता है क्या? 'अचोक्खाइ वा' मृतकलेवरादि के जैसा होता है क्या? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'णो इणढे समट्टे' हे गौतम ! ऐसा अर्थ समर्थ नही है- क्योंकि-'ववगयखाणुकंटक हीरगसकरतण कयवरपत्तकयवर असुइ पूतिय दुन्भिगंध मचोक्खे णं एगोरुय दीवे पण्णत्ते' हे श्रमण आयुष्मन् ! वह एकोरुक द्वीप स्थाणु कण्टक, हीरक, शर्करा, तृणकचवर, पत्तकचवर अशुचिता आदि से रहित होता है अस्थिभंते ! एगोरुय दीवे दीवे दंसाइ वा, मसगाइ वा पिसुयाइ तगाना यश हाय छ? 'पत्तकचवराइवा' ५नमाने। ४य। डाय छ ? 'असुइवा' अपवित्र हाथ डाय छ । 'पूतियातिवा' पूति लाथी यसायमान यथा सारस पहा हाय छ १ 'दुभिगंधाइवा' नी गध सराम हाय तवा पहा होय छ १ 'अचोक्खाइवा, भृत सहना पाहाय छ ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ 'णो इणद्वे समढे' हे गौतम ! मा अथ परामर नथी. म 'ववगयखाणु कंटक हीरगसक्कर तणकयवर पत्तकयवर असुइ पूतिय दुब्भिगंधमयोक्खेणं एगोरुय दीवे पण्णत्ते' हे श्रम मायुभन् ३४ द्वीप स्था, iet, , भR3141, घासना ७५२।, पाइन। य२।, सशुयिया वो विनाना हाय छ, 'अस्थि ण भते ! एगोरुयदीवे दीवे दंसाइवा, मसगाइवा, पिसुयाइवा, जुयाइ वा, लिक्खाइ वा, ढंकुणाइवा' मापन मे।
જીવાભિગમસૂત્ર