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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू. ३८ एकोरुक० मनुजीवानामाकारादिकम् मांसलत्वेन अनुपलक्ष्यमाणं करण्डकं - पृष्ठवंशास्थिकं कनकस्यैव रुचकोरुचिर्यस्याःसा निर्मला - स्वाभाविकागन्तुकमलरहिता सुजाता जन्मदोषरहिता निरुपहताज्वरादिदंशादि दोषोपद्रवरहिता एवं भूता मात्र यष्टिर्विद्यते यासां तास्तथा, 'कंचण कलससमप्पमाण समसंहय सुजाय - लट्ठचूचुय आमेलगजमलजुयल वट्टिय अब्भुण्णयरइय संठिय- पयोधराओ' काञ्चनकलशसमप्रमाणसमसंहत सुजातलष्ट - चुचुकामेलकयमलयुगलवर्तिताभ्युन्नतरतिद संस्थितपयोधराः तत्र काञ्चनकलशसमं प्रमाण यस्तो तथा सम- परस्परतुल्यौ संहतौ परस्परमत्यन्तश्लिष्टौ अनयोरन्तराले मृणालसूत्रमपि प्रवेश न लभते एतादृशौ सुजातौ - जन्मदोषरहितौ लष्टचूचुकामेलको-मनोरुप निम्मल सुजाय णिरुवहयगाय लट्ठी' इनका शरीर इतना अधिक मांसल पुष्ट होता है कि उसमें पसलियां और पीठ की हड्डी दिखाई नहीं पड़ती है तथा वह उनका शरीर ऐसी कान्ति वाला होता हैं कि जैसी कान्ति वाला सुवर्ण होता है आगन्तुक और स्वाभाविक किसी भी प्रकार का मैल उनके शरीर पर उत्पन्न नहीं होता है जन्म के दोषों से विहीन होता है एवं ज्वर आदि रोगो के उपद्रवों से वह बिलकुल रहित होता है 'कं चणकलस समप्पमाण सम संहय सुजात लट्ठचूचुय आमेलग जमल जुगल वट्टिय अब्भुण्णय रतिय संठिय पयोधराओ' इनके दोनों स्तन कंचन के कलश जैसे गोल मटोल होते हैं, अथवा कंचन के कलश जैसे मोटे प्रमाण में होते हैं या उनके जैसे बड़े होते हैं इनमें एक बडा हो एक स्तन छोटा हो ऐसे ये नहीं होते हैं किन्तु प्रमाण में दोनों बराबर होते हैं ये इतने विशाल एवं मोटे होते हैं कि आपस में दोनों ऐसे सटे हुए होते है कि इनके बीच में से होकर मृणाल तन्तु - कमल निम्मल सुजाय णिरुवहयगायलट्ठी' खानु शरीर भेटतु मधु मांसल युष्ट होय છે કે જેથી તેમની પાંસળીયે અને વાંસાંના હાડકા દેખાતા નથી. તથા તેઓના શરીર એવી કાંતીવાળા હાય છે. કે આગંતુક અને સ્વાભાવિક કાઇ પણ પ્રકારના મેલ તેએના શરીર પર ઉત્પન્ન થતા નથી. જન્મના દાષાથી રહિત હાય છે. અને જવર વિગેરે રાગેાના ઉપદ્રવા વિનાની હાય છે. 'कंचनकलस समप्रमाण समसंहय सुजात लट्ठ चूचुय आमेलग जमल जुगलवट्टिय अभुण्यरतिय संठियपयोधराओ' तेभना मन्ने रतन सोनानां उाश भेवा ગાળ મટેાળ હાય છે, અથવા કંચનના ઘડાના જેવા મેટા હોય છે. અથવા સુવણૅના જેવા તેજસ્વી અને અત્યંત આકર્ષક હાય છે. એક સ્તન મેટા હોય અને એક નાના હોય તેવા એ હાતા નથી, પરંતુ તે અન્ને પ્રમાણમાં ખરાખર હેાય છે. એ એટલા વિશાળ અને મોટા હાય જીવાભિગમસૂત્ર ६०३
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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