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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३सू.३६ एकोरुकद्वीपस्थितद्रमगणवर्णनम् ५४५ द्रुमगणाः अणेग बहुविविह वीससापरिणयाए' अनेकबहुविविध विस्रसापरिणते न 'मल्लविहीए उववेया' माल्य-विधिनोपपेता:-युक्ताः सन्तः 'कुसविकुस विसुद्ध जाव चिट्ठति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्षमूलाः मूलवन्तः कन्दवन्तो यावतिष्ठन्ति इति षष्ठकल्पवृक्षस्वरूप वर्णनम् ६ । 'एगोरूयदीवे' णं दीवे तत्थ २ बहवे चित्तरसाणाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो।' एकोरुकद्वीपे खलु द्वीपे तत्र तत्र देशे बह वश्चित्ररसाः चित्रो मधुरादि भेदभिन्नत्वेन अनेकप्रकारक आस्वादयितृणामाश्चर्यकारी तृप्तिकारी वा रसो येषां ते चित्ररसा नाम द्रुमगणा वृक्षाःप्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण! आयुष्मन् 'जहा धाम बन जाता है 'तहे व ते चित्तं गया वि दुमगणा' उसी तरह से ये चित्रांग जाति के कल्पवृक्ष भी 'अणेग बहु विविहवीससापरिणयाए मल्लविहीए उववेया' स्वभावतः अनेक प्रकार की माल्य विधि से परिणत सोकर सुशोभित होते रहते हैं। 'कुस विकुस जाव चिटुंति' इन पदों का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है ।६।। सातवें कल्पवृक्ष के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार से है 'एगोरुय दीवे तत्थ २, बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! उस एकोरुक नाम के द्वीप में अनेक चित्ररस नाम के कल्पवृक्ष जगह२, कहे गये हैं। इनका मधर आदि नाना प्रकार का रस भोक्ता जनों को आश्चर्य कारी होता है एवं तृप्ति कारी होता है अतः इस अनेक विध रस के सम्बन्ध से इन वृक्षों का नाम भी चित्र रस हो गया है वे किस प्रकार के होते हैं ? सो હોય, એવું તે પ્રેક્ષાગ્રહ જેટલા વધારે શેભાની વૃદ્ધિથી જે શેભાનું ધામ मनी लय छे. 'तहेव चित्तंगया वि दुमगणा' से प्रमाणे मा यिain and ४६५वृक्ष ५५ 'अणेगबहु विविहवीससापरिणयाए मल्लविहीप उववेयो' स्लाવતઃ અનેક પ્રકારની માલ્ય વિધિથી પરિણત થઈને સુશોભિત થતા રહે છે. 'कुसविकुस जाव चिटुंति' मा ५होना पडi sat प्रमाणे छे. ६, वे सातमा ४६५ वृक्षन। २१३५नु वर्णन ४२पामा भाव छ 'एगोल्य दीवे तत्थ तत्थ बहवे चित्तरसाणाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रम આયુશ્મન એ એ કેરૂક નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અનેક ચિત્ર રસ નામના વૃક્ષે કહ્યા છે. તેને મીઠે વિગેરે અનેક પ્રકારનો રસ લેતાઓને આશ્ચર્ય કારક હોય છે, અને તૃપ્તિ કારક હોય છે, તેથી આ અનેક પ્રકારના રસના સંબંધથી આ વૃક્ષોનું નામ પણ ચિત્રરસ એ પ્રમાણે નું થઈ ગયેલ છે. તેઓ जी० ६९ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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