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जीवाभिगमसूत्रे
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सूर्य प्रतोद्योत दीप्यमानाभिः, तत्र वितिमिराः उज्ज्वलाकाराः - किरणा यस्य असौ वितिमिरकरः- समुःज्वलोकरणः स चासौ सूरश्च तस्येव प्रसृत उद्योतः - प्रभा समूहः तेन 'चिल्लियाहिं' देशी शब्दोऽयम् दीप्यमानाभिरित्यर्थः, 'जालु - ज्जल पहसियाभिरामाहि' ज्वालोज्ज्वल प्रहसिताभिरामाभिः तत्र ज्वाला एव दुज्वलं प्रहसितमिव प्रहसितं प्रहसनं तेन अभिरामाः - रमणीयास्ताभि दीपिकाभिः 'सोभेमाणा' शोभमानाः 'तहेव ते दीवसिहा वि दुमगणा' तथैव ते द्वीपशिखा अपि द्रुमगणाः 'अणेगबहु विविहवीससापरिणयाए उज्जोयविहीए उबवेया' 'अगबहुविविध - विस्रसापरिणतेन उद्योतविधिनोपपेताः 'फलेहिं पुण्णा' फलै पूर्णा : 'विसहृति' दलन्ति - विकसन्ति 'कुसविकुस वि० जाव चिद्वंति कुशविकुश विशुद्व वृक्षमूला मूलवन्तः कन्दवन्तो यावत्तिष्ठन्ति इति |४|
सूर पसरिय उज्जोय चिल्लियाहिं' और जो अन्धकार विनाशक किरणों वाले सूर्य की फैली हुई प्रभा के जैसी चमकीली बनी हुई हो तथा - 'बालुज़्ज़ल पहसियाभिरामाहि' जो अपनी मनोहर उज्ज्वल प्रभा से मानो हंस सी रही हो ऐसी प्रतीति में आ रही होतो जैसी- 'सोभेमाणा' वह दीपावली शोभित होती है 'तहेव' उसी तरह से 'ते दीव सिहा वि दुमगणा' दीपशिखा नाम के कल्पवृक्ष भी 'अणेग बहु विविहवीससा परिणयाए उज्जोयविहीए उबवेया फलेहिं पुण्णा' अनेक विविध प्रकार के उद्योत परिणाम से स्वभावतः परिणत होने वाली उद्योत विधि से युक्त होते हैं तथा - फलों से परिपूर्ण बने रहते हैं इनका भी नीचे का भाग 'कुसविकुस ०' कुश और विकुश से रहित होता है और ये भी प्रशस्त मूल आदि विशेषणों वाले होते है । तात्पय यही है कि जिस प्रकार से यहां दीपक अनेक प्रकार के होते हैं
सूर्यना साया प्रकाशना लेवी यमडिली अनेस होय तथा 'जालुज्जल पहसि याभिरामाहि' ने पोतानी मनोहर भने ४वस प्रभाथी मानो इसी रहेस होय, भेवी यात्री थती होय तो ते द्वीयभाजा नेवी 'सोभेमाणा' शोलाय भान थाय छे, 'तहेव' मे४ प्रमाणे 'ते दीवसिहावि दुमगणा' दीपशिखा नामना उदथ वृक्षपण 'अगबहु विविहवीससापरिणयाए उज्जोयविहीए उववेया फलेहि पुण्णा' विविध प्रहारना ने उद्योत परिणाम थी स्वलावधी परिणत થવાવાળી ઉદ્યોત વિધીથી યુક્ત હાય છે. તથા ફળેથી પરિપૂર્ણ બનીને २हे छे. तेनी नीथेने। लागयाशु 'कुस विकुस०' देश भने विदेश विनानो હાય છે. અને તે પણ પ્રશસ્ત મૂળ વિગેરે વિશેષણેા વાળો હાય છે. આ કથનનું તાત્પ એજ છે કે જેમ અહિયાં અનેક દીવાએ હાય છે, એજ
જીવાભિગમસૂત્ર