________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५३१ वायविधिना उपपेता:-युक्ताः, 'फलेहिं पुण्णा विसंहति३' कुशविकुशविशुद्घ वृक्षम्लाः मूलकन्दादिमन्तो यावत्-प्रसादनीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा स्तिष्ठन्ति वर्तन्ते-इति ३॥
अथ चतुर्थकल्पवृक्ष स्वरूपमाह-'एगोरूय दीवेणं' इत्यादि 'एगोरूय दीवेणं दीवे' एकोरूकद्वीपे खलु द्वीपे 'तत्थर' तत्र तत्र देशे 'बहवे दीवसि हा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' बहवोऽनेके द्वीपशिखा नाम-दीपशिखा इव दीपशिखाः दीपवत् प्रकाशकत्वात् अन्यथा-तत्राग्नेरभावात् दीपशिखानामपि तत्रासंभवात, तादृशा द्रुमगणाः कल्पवृक्षाः प्रज्ञप्ता:-कयिताः, हे श्रमण आयुष्मन् ! 'जहा से संझाविरागसमए नवणिहिपतिणो दीवियाचकवालविंदे' यथा ते सन्ध्यातथा 'फलेहिं पुण्णा०' फलों से भी परिपूर्ण होते हैं इनके नीचे की जमीन भी 'कुसत्रिकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति' कुश एवं विकुश से विहीन रहती है तथा ये भी प्रशस्त मूल स्कंध आदि वाले होते हैं। तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार यहां पर वादित्र अनेक प्रकार के होते हैं वैसे ही वहां के ये कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार के होते हैं ।।
चतुर्थ कल्पवृक्ष का स्वरूप कथन 'एगोरुय दीवे' एकोरुक द्वीपं में 'तत्थ तत्थ' जगह २, 'बहवे दीव सिहा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! ' हे श्रमण आयुष्मन् ! अनेक दीप शिखा नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं । दीप में से जैसा प्रकाश निकलता है वैसा ही प्रकाश इनमें से निकलता है इसी कारण इनका नाम दीप शिखा कहा गया है यहां अग्नि नहीं होती है अतः यहां दीपों की शिखा का भी अभाव है पर यहां जो प्रकाश होता है तभनी नायनी मान ५५ 'कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिद्वंति' । भने વિકુશ વિનાની જ હોય છે. તથા તે પણ પ્રશસ્ત મૂળ સ્કંધ વિગેરે વાળા હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ અહિયાં અનેક પ્રકારના વાજીંત્ર હવાન કહેલ છે. એ જ પ્રમાણે ત્યાંના આ કલપવૃક્ષો પણ અનેક પ્રકારના હોય છે. ૩
व याथा ४६५वृक्षना २१३५नु थन ४२वामा भाव छ. 'एगोरुयदीवे' ३४ द्वीपमा तत्थ तत्थ स्थणे स्थणे. 'बहवे दीवसीहाणाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' श्रम मायुभन् होशिमा नाभन भने पक्षी કહ્યા છે. દીવામાંથી જે પ્રકાશ નીકળે છે, એ જ પ્રકાશ આમાંથી પણ નીકળે છે. તેથી જ તેનું નામ દીપશિખા એ પ્રમાણે કહેલ છે. અહિયાં અગ્નિ હોતી નથી. તેથી અહિયાં દીવાની શિખાને પણ અભાવ છે. પરંતુ मडिया प्राय छे, ते मे ४६५वृक्षोभाथी भाव। डाय छे. 'जहासे
જીવાભિગમસૂત્ર