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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३सू.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३९३ 'जहेव जलपराणं तहेव चउको भेदो' यथैव जलचराणां चतुष्को भेदः कथित स्तथैव-तेनैव रूपेण स्थलचराणामपि चतुष्को भेदो ज्ञातव्या, तथाहि-प्रथमतश्चतुष्पदाः समूच्छिमगर्भजभेदेन द्विविधा वक्तव्याः, ततःसंमृच्छिमाश्चतुष्पदा पर्याप्ता अपि भवन्ति, अपर्याप्ता अपि भवन्ति, ततो गर्भजचतुष्पदा अपि पर्याप्ताअपर्याप्ताश्चापि भवन्ति, ततश्च समूच्छिमगर्भजभेदेन पर्याप्तापर्याप्तभेदेन च चतुष्पद स्थलचराश्चतुःप्रकारा भवन्तीति । ‘से तं चउप्पय थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' ते एते चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः भेदप्रभेदाभ्यां निरूपिता इति ॥ चतुष्पद स्थलचरान् निरूप्य परिसर्प स्थलचरान् निरूपयितुं प्रश्नयनाह'से किं तं परिसप्प थलयरपंविदियतिरिक्खजोणिया' अथ के ते परिसर्प स्थलनिक 'जहेव जलयराणं तहेव चउक्कओ भेओ' जिस प्रकार से जलचर जीवों के चार भेद कहे गये हैं-उसी प्रकार स्थलचर जीवों के भी चार भेद कह लेना चाहिये जैसे-स्थलचर चतुष्पद जीवों के मूल भेदों से दो प्रकार के होते हैं एक संमूच्छिम और दूसरे गर्भज, चतुष्पद हैं वे पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं। इसी तरह संमूच्छिम चतुष्पद भी पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के होते हैं। अतः संमृच्छिम और गर्भज के भेद से तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चतुष्पदस्थलचर जीव चार प्रकार के हो जाते हैं। 'सेत्तं चउप्ययथलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया' इस तरह से ये चतुष्पद स्थलचर पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव अपने भेद प्रभेदों से निरूपित हुए हैं। परिसर्पस्थलचर निरूपण-से कि त परिसप्पथलयर पंचिदियरितिय२ पयन्द्रिय तिय योनि. 'जहेव जलयराणं तहेव चउक्कओ भेओ' र પ્રમાણે જલચર જીવોના ચાર ભેદો કહ્યા છે. એ જ પ્રમાણે સ્થલચર ઇના પણ ચાર ભેદ કહેવા જોઈએ. જેમકે સ્થલચર ચતુષ્પદ જીવે ના મૂલ બે ભેદ થાય છે. જેમકે એક સંમૂચ્છિમચતુષ્પદ અને બીજે ગર્ભ જચતુષ્પદ છે. તેઓ પર્યાપ્ત પણ હોય છે. અને અપર્યાપ્ત પણ હોય છે, એ જ પ્રમાણે સંમૂરિ૭મ ચતુષ્પદ પણ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એમ બન્ને પ્રકારના હોય છે. તેથી સંમષ્ઠિમ અને ગર્ભજના ભેદથી તથા તેના પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તકનાमहथी यतुपयलय२ । यार न य य छे. 'से तं चउप्पय थलयर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया' मा प्रमाणे मा यतु५४ स्थायर पथन्द्रिय તિયંગેનિક જીવનું તેમના ભેદો અને પ્રભેદથી નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે પરિસર્ષ સ્થલચર જીવોનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. આ સંબં. wi श्रीगौतमस्वामी प्रसुश्रीन पूछे छे है 'से कि त परिसप्पथलयर पंचिंदिय जी० ५० જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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